द्ेद्य शिवनारायण मिश्र सिघ्यत्न हारा प्रकाश औपधालय के प्रकाश प्रिविस प्रेस कानपुर में मुद्धित धृतमान भारतीय साहित्थिकों में डाक्टर सर रवीन्द्र नाथ का स्थान सबसे उँचा है। अ्र्वाचीन भारतीय कवियों में केवल आपकी प्रतिभा के सामने सारे देश ने ही नहीं, किन्तु सारे संसार ने सिर ऋुकाया है | “श्राँख की किरकिरी”, प्तौका डूबी”, “गोरा? “घर बाहर” घझ्रादि उपन्यासों ने “नेवेद्”, “खेया” आदि काथध्य अन्धथों, “रक्तकवरी”, “मुक्तघारा” थ्रादि नाटकों और अनेक लेखों और अख्यायिकाओं द्वारा आपने साहित्य का उपकार किया है । पर वह ग्रन्थ जिसने आप को संसार भर में मसिद्ध कर दिया, जिसके कारण आप को सवा लाख रुपये का नोबविल प्राइज् नामक पारितोपिक मिला, जिस पर ईट्स, राधेन्सटेन और एन्ड्यूज ऐसे महाजुभाव मुग्ध हो गये, और जो आपके सारे अन्‍्थों में सर्वश्रेष्ठ माना गया है, वह है “गीतान्जलि? । हमने बेंगला गीताब्जलि की तुलना अं भेजी गीतान्‍जलि से की है। हम कह सकते है कि कई अ'शों में श्रैग्रेजी गीताग्जलि बंगला गीताव्जलि से बढ़ी चढ़ी है । यह पुस्तक उसी गीताब्जलि का हिन्दी अनुदाद है। रखीन्द्र बाबू बंगाली हैं, ओर बंगला साहित्यसेवी हैं। पर आपकी श्रेत्रेज़ी बडी अलंकृत और चमत्कारिक है। उसे देखकर आप नहीं कह सकते कि वह एक बड़े झऑड्रेज लेखक की भाषा नही है। फिर, रवीन्द्र वावू की लेखनशैल्मी वढ़ी अटपटी और अलंकार पूर्ण होती है। सुहावरों की तो झूडी बेंच ( ख ) जाती है। ऐसी भाषा का हिन्दी उल्था करना सदज नदी । एक तो सच्म भावों के लिए हिन्दी में झठ्द कछ्विता से सिलते ईं, दूसरे वतमान णछ्््‌ हक लेखक भाषा पर प्रभुत्व रखने का दावा नहीं कर सकता । [का अन्य महाकवियों की तरह रवबीन्द्र ने भी अलंकार, उपसा और रूपकों का बहुतायत से प्रयोग क्या है। यह मशाकृतिक दृश्यों से; घनघोर घटा, अंधेरी रात, रमणीय प्रभात, सुन्दर सयोदय इत्यादि से; प्रेमी प्रेमिकाओं के ढाव झावों से, अन्य खांसारिक व्यवहारों से और विशेषतः गान वाद्य से ( याद रहे कि रवीन्द्र बाबू महाकवि डी नहीं, किन्तु महागायक भी हैं ) लिये गये ह। इनको साधारणतः ससरू लेना तो किसी साहित्य-प्सी के लिए. कठिन न होगा पर इनके गूठ अभिप्रायों का ठीक ठीक पता लगाना टेढठी खीर हैे। इनके अनेक अर्थ हो सकते है । संभव है कि जो अभिपम्राय हमने समझा, वह कवि का असिप्राय न हो। सम्भव है कि कवि का अभिम्राय इतना उच्च और गुप्त हो कि वहाँ तक पहुँ चना हमारी शक्ति के बाहरहो। अपने को कवि की स्थिति म---मानसिक अवस्था सें-- रब्खे बिना आप कवि के भाव पूर्णतया नही समर सकते । रवीन्द्र की सानसिक अ्रवस्था तक पहुँ चना सबके लिए संभव नहीं। उसकी बहुत सी सानसिक अवब- स्थाओं को चित्त मे लाना श्री शायद असंभव हो। यह एक ऐसी कठिवता है जिस से सहाकवियों के पाठक और अज्ुुवादक अच्छी तरह परिचित हैं। छुछ ऐसे गीत हैं जो कवि ने अपनी निराली ही तर'ग में लिखे है । यह कहने की आवश्यकता नहीं कि इन सब बातों के कारण अचुवाद करने से वढ़ी कठिनाइयाँ पडी हैं। हसने प्रयत्न किया है कि गीतों कक 528 पता को ससझ आजारयें। न तो बैँगला और न अंग्नज्ञी “गीतांजलि” में ही गीतों के शीर्षक दिये हुए हैं। हमने ( ग)? उत्येक गीत का ऐसा शीर्षक बनाने का प्रयत्व किया है जो गीत के आन्त- रिक्त साठ को प्रकट करता हो और जिसकी सहायता से पाठकों को सारा गीत सममने में सुविधा टो । वाज बाज शीपषक बनाने में तो धरण्टों दिचार करना पढ़ा है । यहाँ यद कहना आवश्यक है कि पाठक इन गीतों को एुछ बार नहीं, दा वार नहीं, कई चार पढें ॥ भिन्न भिन्न ससयों और भिन्न मिन्‍न अचस्थाओं में पढ़ें, तभी थे पूरा आनन्द और लाभ उठा सकेंगे । सुप्रसिद्ध आँग्ेज़ कवि मि० ईंट्स इन गीतों के विषय में लिखते हैः--“इनको मेंने यात्रा में बहुत दिनों तक अपने साथ रक्खा है। मैंने इनको रेलगाड़ियों में, घोडागाडियों में और होठलों मे पढा है। पढते पढते सें बहुधा ऐसा उत्तेजित होगया हूँ कि उत्तेजना को छिफतने के लिए मुझे पुस्तक बन्द कर देना पडी हे ।?” प्रभात का वर्णन करने वाले एक गीत को आप एक बार अपने कमरे में बेड कर पढ़िये । दूसरी वार उसी गीत को अ्रभात के समय नदी के किनारे या ज'गल के पेडों के नीचे या गाँव के खेतों में टहल टहल कर पढिये, आपको भेद मालूम हो जायगा। किसी गीत के अथस बार पढ़ने से जो प्रभाव सन पर पड़ेगा वह तीसरी या चौथी बार पढने के प्रभाव के सामने फीका जान पड़ेगा । शोक या चिन्ताग्रस्त मस्तिष्क में जो भाव उध्पन्न होंगे वह अफुल्ल चित्त पर उत्पन्न होने वाले झावों से भिन्न होंगे । इसी प्रकार पढ़ते पढते सब गीतों के आन्तरिक अशिम्माथ सें प्रवेश होना सम्भव है। यह कहना अत्युक्तिन होगी कि बहुधा गीत के आलन्तरिक भाव इतने छिपे रहते हैं कि सहसा उनका ध्यान भी नहीं आता। पर जब एक वार उनका पता लग गया तब सारे गीत में विचित्र आनन्द आने लगता है। उदाहरण देखिये । ( घ ) छुब्वें गीव में कवि ने अपने जीवन को एक छोटा तुच्छ फूल साना है। वह परसेश्वर से आ्राथना करता है कि इस तुच्छु भेंट को स्वीकार करे | आउवाँ गीत कृत्रिमता और वाह्याडम्बर की निन्‍दा करता है । सज धज और नास धाम के सनुष्य सब कहीं नहीं जा सकते, सब तरह के लोगों से वात चीत नहीं कर सकते, अपने संकुचित क्षेत्र के बाहर पर नहीं रख सकते और इसलिये उनऊे जीवन का पूर्ण विकास नहीं होता । तेतीसवाँ गीत वतलाता है कि अ्रलोसन केसी चालाकी से हृदय प्रवेश करते हैं और फिर अवसर पाकर अपना पूरा अधिकार केसे जमा लेते हैं 3] देंतीसवें गीत में एक आदर्शा समाज का चित्र खीचा गया है । बासदठ्वें गीत में कवि कहता है कि बालक के द्वारा प्रकृति--- परसेश्वर--का रहस्य केसे समर में आता है। रंग विर गे खिलौने देख कर वालंक असन्न होता है, इसलिये पिता उसे रंग पिरगे खिलौने देता है । इसी अकार परमेश्वर ने जगत को अखन्न करने के लिए मेघ्त, जल और फूलों को रंग विर॑गा कर दिया है । दो चार गीत ऐसे भी हैं जो केवल कवियों या महात्माओं पर लागू हैं, ओर जिनका साधारण जनों से कोई विशेष सम्बन्ध नही । इक्यासीव गीत सें कवि कहता है कि मैंने बहुधा समय के नाश पर पश्चात्ताप किया है पर वास्तव में समय कभी व्यथ' नष्ट ही नही हुआ । सम्भव हैं कि यह कथन कवियों के विषय में ठीक हो, पर औरों के विषय में ठीक नहीं हो सकता। (८ 9) गीतांजलि में श्रनेक प्रकार के गीत मिलेंगे । ४, ६, ३४, ३४ ३६, ७६, श्र १०३४ संख्या के गीतों में परमेश्वर से प्राथ ना की गई है । २, ३२, ७, १३, १९, १६, ४६ और १०१ संख्या के गीतों में गाने बजाने की भाषा का प्रयोग किया गया है। जेसा कि हम कह चुके हैं, रवीन्द्र बाबू बढ़े भारी गायक हैं और इसलिये कोई आश्चर्य नहीं कि भार्थना, प्राकृतिक धश्य, जीवन-मरण, बन्धन सोक्त आदि सब ही विषयों में आपने गाने बजाने की भाषा का समावेश कर दिया हैं । १६, २२, ४०, ४८, <३, €७, £६, ६१, ६८ ओर ८० संख्या गीतों में प्राकृतिक रृश्यों का अच्छा वर्णन है । $|7 कवियों की दृष्टि सौन्दर्य पर वढ़ी जल्दी जा पडती है। जहाँ साधारण नेत्रों को कोई मनोहरता नहीं दिखलाई पढती, या कुरूप ही कुरूप दिखलाई पढ़ता है, चहाँ कवि के नेत्र सौन्दर्य ढँढ निकालते हैं । ३, १२, १६, 3१, ४३, ४3६, *६, ६६, ६६, ७१, ८७, €& और १०० संख्या के गीतों में ( १४ ४४४०४७ ) अलौकिकता, गूढता, रहस्थयुक्तता की झलक है । कवि अपनी आत्मा को सर्वव्यापी आत्मा में मिला देना चाहता है। बक्षलय की इष्टि से वह जीवन, मरण, देश, काल आदि पर विचार करता है। उसके लिए झत्यु कोई भयंकर दुखप्रद-वस्तु नहीं । वह तो अनन्त जीवन में पअवेश करने का हार है। अचन्त के साथ विवाह करने की रस्म है। ब्रह्म के पास जाने, चह्म में मित्ष जाने का ५ क् .) म साग है। यही कारण है कि आप का रवीन्द्र वादू को क और परलोक की प्रशंसा मे बहुत से गीत मिलेंगे । आशा हैं कि जो महाशय बेंगला या अं ब जी जानते है उच्नकों इस हिन्दी अबजुवाद से उन भाषाओं की गीतांजलि के समकने मे सहायता मिलेगी । ञ् हम दीनबन्धु सी-एफ एड्ख्ज महंदस के हुढय जिनके प्रयत्न से सहाकवि ने गीतांजलि के हिन्दी रुपान्तर के अक्ाशित ऋऊरने की आज्ञा दी हैं । गीत का नाम तेरी कृपा गान महिमा विराट गायन मेरा संकल्प ७ उत्करण ६ जीवन-पुष्प ७ अलंकार-तिरस्कार ८ भूषण-भार-बालक £ अभु-निष्छ १० दीनवन्धु ११ सच्ची उपासना १२ दीघे-यात्रा १३ पूर्णआाय १४ कठोर करुणा १४ केचल गान १६ मेरी अन्तिम आकांक्षा १७ प्रेम प्रतीक्षा (८ प्रेस से शिकायत १६ अ्रम-धीर हम न्फ् *० एज त्प्ण च्छ | ; (वि 7 ५६ + पा । हि (2१74780 0 ॥॥॥ ॥ गा 27॥/॥॥ ] ५ ल्द्८ २१ श्र मा #ए #&ए नए न व अ्एण नं रण ॥॥ धंधा ४ < 6, 7 /श् 4 । ॥|075 गांत का नाम अंतर ग सरोज अब चल ठो हृदय-द्वार प्र स-अधीर आलसी और अधम जीवन से खत्यु बेहतर हैं प्यारी निद्रा ग्रंमी का स्वप्न प्रेम की ज्योति वासना की वेड़ी अपने ही कारागार का बन्दी हडीला साथी अद्भुत वन्‍्धन विलक्षण प्रेम प्रलोभन का प्रभाव स्वल्प याचना गआदर्श-भारत बल-मभिक्ता 2च्णए ५0० ,० &ए «० ८० ० ए 0 #्_ेय. ८८ # ७0 वा «9 8 < ( ज ?) नं० गीत का नाम पृष्ठ | लं० गीत का नाम पुष्ठ ३७ अनन्त यात्रा श्म | र८ विश्वव्यापी आनन्द. दर इ८ केवल तेरी चाह ३६ | ५६ अझति से ईश्वरीय मम ३६ संकट-हरण ४० का दिग्दशन ६६ ४० वर्षा के लिये प्राथना. ४१ | ६० लडकपन 4७ ४१ प्रसमयी प्रतीक्षा ४२ | ६९ वालछवि का श्रोत द्झ ४२ संयोग सें दिलम्ब ६२ बालक द्वारा अकृतिरहस्य ओर आशा ४४ का बोध ६६ ४३ अज्ञात आगमन का ६३ जीवन विकाश में स्मरण ४९ विधाता का हाथ ७० ४४ घेर्यपूर्ण आशा ४2६ | ६४ शक्तियों का छुरुपयोग. ७१ ४९ आता है ४७ | ६६ भक्त और भगवान की ४६ लो, वह आगया ध्८ एकता ७३ ४७ साक्षात दुशेन 3६ | ६६ अल्तिस सेट ७४ ४८ सरल सिद्धि ९० | ६७ इहलोक और चलह्मलोक ७६ ४६ सच्चे साव की महिमा ६२ | ६८ सेघ ७ ४० दान सहात्म्य ३ | ६६ विश्वव्यापी जीवन छ्प £ ९ अवसर की उपेत्ञा ४ | ७० विश्वन्यापी आनन्द ७३ ४२ सेरा नवीन रंगार ७ | ७१ भाया ब्द्० ४३ चूडी और खडढ्ग की ७२ यह वही है दे उलना <£ | ७३ वन्धन में सुक्ति परे ४४ अनोखा परोपकार ६० | ७४ अस्थान का समय स <& दुःख में सुख की आशा ६२ ७४ विश्वच्यापी पूजा डे <६ प्रमियों की एकता ६२ | ७६ ईश्वर के सन्‍्मुख रहने की ७ अकाश दे इच्छा ८६ ( रे ) नं० गीत का नाम पृष्ठ | चं० गीत का नाम पृष्ठ ७७ मनुष्य की सेवा ही 8१ सृत्यु की स्नेहमयी ईश्वर की सेवा है ८७ प्रतीक्षा १०४ ७८ खोया हुआ तारा ८प | 8२ झूत्यु के उस पार १०४ ७६ अभिलपित चेदना ४० | ४३ संसार से विदा १०६ ८० ब्रह्म में लीन होने की ४४ परलोक यात्रा १०७ श्राकांच्ा &२ | ६५४ जीवन मरण की ८१ समय की विचितन्न गति &३ समता १०८ ८२ अभी समय है ४४ | ६४६ मेरे अन्तिम बचन १०६९ ८ई अनोखा हार ६६ | ६७ ग्रकृतिम्रमु का बोध. ३१० ८४ वियोग ६६ | €८ काल बली से कोई ८ योद्धाओं का आवागमन ६७ न जीता १११ मद यमागमन ध्य | ६६ हरि के हाथ निबाह ११२ ८७ नित्यता की समाप्ति ६६ १०० परचह्म में लय ११३ ८८ जी मन्दिर का ठेवत १०० [१०१ कविता का प्रसाद ११४ ८६ मोनबती वेरागी १०२ [१०२ अर्थ रहस्य ११% ६» खुत्यु का आतिथ्य..._ १०३ १०३ पूर्ण प्रणाम ११६ रे ६६६६६ ६६६६६६६६६६६६६६६६६४६ ६६ ६६६६ ६ ६ ६- ६:5६ ४ प्रकाश पुस्तकाछय हारा किए ४५ ध शी है! प्रकाशित भर गजल कि 8 है ४, रवान्द्र वाबू क अन्ध ४... गोरा [ उपन्यास ] २) ० आर मलिक 2085 7)2 ४. मुक्तताग | नाटक | ४) 23334 93-88 3 ४१ 3 3 जी से 0 >> 8 १० "5 है प्रकाश पुस्तकालय, कानदुर कक फ्ाः भा श। ।5 हा |। है है! 9 ै। है । ॥ ॥/ थे हु आय करन. मन. बट धाम. कब. के. अं. कक. हनन ह रा डे हु ८ आई ८ 75४४० 7 ८ भ “7९६५ /० २४७०५: हे 08 विस इश ४०५ “जे, 22 227] न्द्रनाथ डाकुए पीन्द्र कादर सर रत सह कु काश घस, न तेरी कृपा श्‌ तूने मुके अनन्त बनाया है, ऐसी तेरी लीला है, तू इस भंगुर-प्रात्त ( शरीर ) को वार बार खाली करता है और नवरजीवन से उसे सदा भरता रहता हे, तू ने इस वॉच की नन्‍हीं सी बॉचुरी को पहाड़ियों और घाटियों पर फिराया है शोर तूने इसके द्वारा ऐसी मधुर तानें निकाली हैं जो नित्य नई हैं, मेरा छोटा सा हृदय, तेरे हाथों के शयृतमय स्पशे से अपने भ्रानन्द की सीमा को सो देता है और फिर उससे ऐसे उद्यार उठते हैं जिनका बर्गन नहीं ही सकता. तेरे श्रपरिमित वानों की बर्षा मेरे इन छुद्र हाथों प्र ्‌ भ्रहचिशि ) छोती है, बच के युग बीवते याते हैं श्र तू उन्हें बराबर वर्षाता याता है ऑर यहाँ भरने के लिये स्थान शैष ही रहता है. ) हिन्दी-गीताडलि | गान-सहिसा झ्ब तृ म॒के गाने की भाज्ञा दता हैं तो प्रतीत होता हैँ कि मानों गर्व से सेसा हृदय टूटना चाहता है, में तेरे बुख की ओर निहारता हैं, और मेरी झ्ोों मे ऑसू आ जाते हैं मेरे जीवन से जो कुछ कठोर और अनमिल हैं वह मधुर स्व॒रावल्ि में परिणत हो जाता है; और मेरी आराधना उस प्रसन्॒ पत्ची की तरह अपने पर फेलाती है जो उड कर सिन्धु पार कर रहा हो | में जानता हूँ कि तुके सेरा गाना अच्छा लगता है. में जानता हूँ कि तेरे सम्मुख में गायक ही के रूप में आता हूँ तेरे जिन चरणों तक पहुँचने की आकांत्ा भी में नहीं कर सकता था में अपने गीतों के दर तक फेल हए परों के किनारे से छ लेता हैँ गाने के आनन्द में मस्त होकर में अपने स्वरूप को भूल जाता हूँ और स्वामी को सखा पुकारने लगता हूँ. हिन्दी-गीताअछि विराट गायन है हे मेरे खामी / न जाने तुम कैसे गाते हो. में वो आश्चर्य से अवाकू होकर सदा ध्यान से सुनता रहता हूँ. तुम्हार गान का अकाश सारे जगत को अकाशित करता है. तुम्हारे गान का आणवाड लोक-लोकान्तर में दौड रहा है. तुम्हारे गाव की पवित्र धारा पथरीली रुकारंटों को काटती हुई बेंग से वह रही है. मेरा हृदय तुम्हारे गान में सम्मिलित होने की बडी उत्कंठा रखता है परन्तु प्रयत्न करने पर भी थावाज नहीं निकलती, में बोलना चाहता हूँ किन्तु वाणी गीत के रूप में प्रगट नहीं होती. व, मै अपनी हार माच लेता हूँ: ऐ मेरे स्वामी ! तुमने मेरे हृदय को अपने गान रूसी जाल के अनन्त छिंद्रों का बेंघुआ बना लिया है, हिन्दी-गीताश्ललि भेरा संकल्प 8 है जीवन-प्राण, यह अनुभव करके कि मेरे सब श्रंगों में तेरा सचेतन स्पर्श हो रहा है में अपने शरीर को सेव पवित्र रखने का यत्त करूँगा. हे परम-अकाश, यह अनुभव करके कि तूने मेरे हृदय में बुद्धि के दीपक को जलाया है में अपने विचारों से समस्त असत्यों को दूर रखने का सदेव यत्न करूँगा. यह अचुभव करके कि इस हृदय-मन्दिर के भीतर तू विराजमान हे में सब दुगुण्ों को अपने हृदय से निकालने और [ तेरे ] ग्रेम को अ्रस्कृटित करने का सदैव यत्न करूँगा, यह अनुभव करके कि तेरी ही शक्ति सुके काम करने का बल दूती हे में अपने तब कामों यें तुके व्यक्त करने का सदैव यत्न करूँगा. हिन्दी-मीवाश्षल्ठि डत्कश्ठा ९७ तू केवज क्षण भर अपने पास घुम्के बेउने दे, जो काम मुझे करने हैं उन्हें फिए कर लूँया. तेरे मुखारविन्द से अलग रह कर मेरे हृदय को न कल मिलती है और न शान्ति, और सेरा क्रास परिश्रम के अपार पायर में अत्यन्त कप्टदायक्र हो जाता हे. आज मेरे करोखों में ठढी साँतें लेते ऑर बड्क्ञते हुए वसन्‍त का आयमन हुआ है और कृछुमित कुजों के प्रांगग्‌ में मधुमक्खियोँ युंजार कर रही है. अब मेरे सन्‍्मुख रिथत हो१र बैठने और जीवव समर्पण का गीत गाने का शन्तिमय और शत्वधिक अवकाश हे. हिन्दी-गीदाझइलि दे जीवन-पुष्प द्द्‌ इस नन्‍हें से एप्प को तोड जले और इसे ( अपने हाथ में ) ले ले, विलम्ब न कर / झुमके डर है कि कहां यह मुरका कर घूल में व गिर जाय, तेरी माला में चाहे इसे स्थान च मिले किन्तु अपने कर-कमल के स्पर्श से इसका सान तो कर और तोड ले- मुझे डर है कि कहीं मेरे जाने विचा ही भेंट का समय न निकल जाय, यद्यपि इस्तदा रग गहरा न हो और इसकी यध हलकी ही हो, तिस पर भी इस पुष्प को अपनी सेवा में लगा ले आर समय रहते रहते इसे तोड ले. छ् हिन्दी- गीताखलि अलेकार-तिरस्कार कं: मेरे गीतों ने अपने अलंकारों को उतार छात्रा है; उन्‍हें वस्त्रालंकार का भ्रहंकार नहीं है. आ्राभूषण हमारा संयोग नहीं होने देते, वे तेरे और मेरे बीच में भा जाते हैँ; उनकी मंकरार से तेरी धीमी आवाज दव जाती है. तेरे सामने मेरा कविपने का मिथ्या गव॑ लज्जा से मर जाता है. है कवीन्द्र, में तेरे चरणारतिन्दों में बैठ गया हैँ. बस, मु्के अपने जीवन को सरल और सीधा बनाने दे और वॉस की बॉसुरी की भाँति उस्ते तेरे लिये राग गयगिनियों पे भरने दे. हिन्दी-गीलायुलि सूषण-सार-बालक ८ तुम जिस बालक को राजकुमार के क्‍सओओं ते सजाते हो भौर जिफके गले में हार पहनाते हो, उसके खेल का “आरा भानन्द नष्ट हो जाता है, उसके वेधन-भृषण उसके अत्येक पद की गति को रोकते हैं, इस भय से कि कहीं वे घिस्ा न जाएँ या पृल्न से मेले न हो याएँ, वह अपने भ्राप को सब दे दूर रखता, “हे और प्ले फ़िरने से भी हरा है, है वो, दादि टीमदाक के हेरे दच्कृद पथी की सस्‍्था पूल ते किसी को लव रखते हैं, गंदि वे सकान गान जावन के विगठ दाद के अष्शाक्षियर हे फिली को इ्चितत करते हैं तो उनसे कोर्ट लाग नहीं, हर हिन्दी-गीतासखलि प्रभु-निष्ठा & ऐे मूर्ख / अपने ही कघो पर आप ही चढन का प्रयत्त / ये मिक्षक, अपने ही द्वार पर सिद्षा मॉयना / अपने समस्त भारों को उत्तके हाथों में छोड दे जो सब सह सकता है और दुखी होकर पीछे कमी नहीं देखता. जिस दीपक पर तेरी तष्णा फूक मारती है कह उसके प्रकाश को तुरन्त बुमा देती है. वह अ्पतरित्र है, उत्तके अशुद्ध हाथों से कोई वस्तु ग्रहण मत कर, क्रेवल्ल उसी को स्वीकार कर जो पावन प्रेम द्वारा प्राप्त हो. हिन्दी-गीताजलि ६० दीनबन्धु १० हॉ दीनातिदीन, नीचातिनीच और नष्टअरष्ट निवास करते हैं वहाँ तेरे चरण विद्यमान हैं. जब्र मैं तुके प्रणाम करने का उद्योग करता हूँ, मेरा प्रणाम उस गहराई तक नहीं पहुँच सकता जहाँ दीनातिदीत, नीचातिनीच ओर नश्भ्रष्टों के बीच में तेरे चरण विराज- मान हैं. अहंकार की वहा तक गति ही नहीं है, जहाँ दीना- तिदीन, नीचातिनीच और नष्ट्रष्टों के बीच दरिद्वियों के वेप में तू विचर॑ता है. मेरे मन को उस स्थान का मार्ग कबी नहीं मिल सकता जहाँ दीनातिदीन, नीचातिनीच और चष्टअष्टों के बीच में निस्संगियों के संग तू विद्यमान है. ११ हिन्दी-गीतवाशअलि सच्ची उपासना ११ डुप्त पूजापाठ भजनगान और माला के जाप को छोड़; सब द्वारों को बंद करके मन्दिर के एकान्त अँधेरे कोने में तू किस की पूजा करता है ? आखे तो खोल और देख कि तेरा ईश्वर तेरे सामने नहीं है. वह तो वहाँ है जहाँ किसान की भूत्रि में हल चला रहा है और सडक बनाने वाला पत्थर तोड़ रहा है, वह धूप और पानी में उनके साथ है और उसके कपड़े धूल से आच्छादित हो रहे हैं. तू अपने पवित्र वस्त्र को उत्तार डाल और उसके समान घूल भरी भूमि सें उतर आ. सुक्ति ? मुक्ति कहाँ मिल सकती है / हमारे स्वामी में स्वयं अपने आप को सृष्टि के बंधरनों में सहर्ष डाला है, वह हम सब के साथ सदा के लिए बँधा है. ध्याव भर समाधि (के ज॑जाल) से बाहर निकल आा और धूप और पुष्षों को एक थोर छोड दे. यदि तेरे कपडे फट जाएँ शोर उनमें धब्बे लग जाएँ तो हानि ही कया हे ? उस से मिल, उस्त के संग मेहनत कर थर उस के साथ प्चीवा बहा. हिन्दी-गीताइलि हरित हर शेर दाघ-यात्रा श्र मेरी यात्रा में बडा समय लगता है और उसका मार्ग त्त्म्व्रा है, में यात्रा के लिए प्रकाश की प्रथम किरय के रथ पर निकला था. ग्रहों भर तारों में, लोक भोर लोकान्तरों में, ब्र्नों और परवतों में घृम फ़िर कर में अपने अगण के चिन्द्र छोड आया हूँ. सब से अधिक दूरी का माय ही तेरे सब से निकट या जाता है और वह शिक्षा सव से अधिक विषम या यूट हैं जिस के द्वारा भत्यन्त सरल खर निक्राला जा सकता हें, यात्री को अपने द्वार पर पहुँचने के लिए प्रत्येक पराये द्वार को खटखटाना पता है, नेत्र दूर और निकट सब कहाँ भटके, तत्यश्चात मीचकर कहा “ठुम कहों विराजमान हो? ? . जज जोडा बल. मर वर ५ उ्न्ह १३ हिन्दी-गीताअलि पृणेघ्राय १३ जिस गीत को याने के लिए में आया था वह थ्राज तक नहीं गाया यया, मैंने श्पने दिन भ्रपने बाजे के तारों को ठीकठाक करने में व्यतीत कर दिये, ताल ठीक न हो पाया, और शब्द भी ठीक नहीं बेठे, मेरे हृदय में केवल अमिलाष। की यंत्रणा विद्यमान है. कली नहीं खिली है केवल उत्तके समीप आाहें भर रही है. मैने उनका सुख नहीं देखा है और न उनका क्ंठसवर ध्यान से सुना है, मैंने तो घर के सामने वाली सड़क से उनके चरग्ारविन्द की आहट मात्र सुन पाई है, सारा दिन आसन विछाने में बीत गया, किन्तु दीपक नहीं जलाया गया, कहो, अब उनको घर में केसे बुलाऊँ ! में उन से मिलने को थ्राशा में जी रहा हूँ, परन्तु श्रव तक भेंट नहीं हुईं. हिन्दी-गीताअलि हे कठोर करुणा ५्छ झेरी कामचाएँ अनेक हैं और मेरी पुकार कठुशाजनक है. किन्तु कठोर अखीकारों के द्वारा तूने सुके सदा बचाया है; तेरी यह प्रवल्ल करुणा मेरे जीवच में ओतग्रोत हो रही है. अत्यधिक कामना के संकर्टों से वचा कर दिन प्रतिदिन तू मुफे उन साधारण यहादानों के योग्य बना रहा है जो तृने मुके विना बॉये दिये थे; जेसे यह भाकाश, ग्रकाश, तन, मन और ग्राण॒. कमी कमी में झालत्य से पीछे रह जाता हूँ और फिर जब जागता हूँ तो अपने लक्ष की ठलाश में दोड पडता हूँ; किन्तु तू निष्ठुरता से अपने आपको छिएा लेता है. निर्वेल तथा अनिर्चित कायना के यंकटों से वचा कर भ्रस्रीकारों द्वारा तू मुके अपनी पूर्ण स्वीकृति के योग्य चना रहा है. श्पू हिन्दी-गीताशलि केवल गान श्प में तरे लिए गीत गाने को यहाँ उपस्थित हूँ. तेरे इस मन्दिर के एक कोने में मेरा स्थान है. तेरी स॒प्टि में मुके कोर्श काम नहीं करना है. - मेरे--.' निरर्थक्र जीवन से कुछ तानें कमी कमी चिष्योजन निकल प्रकती हैं. आधीरात के अँधेरे मन्दिर में जब तेरी उपासना का घयटा बजे तब मुझे गाने के लिए अपने सस्युख खडे होने की आज्ञा प्रदान पर, प्रभात वायु में जब सुनहरी बीणा का सुर मिलाया जाता है, तब अपनी सेवा में उपस्थित होने की आजा देकर मेरा मान कर. हिन्दी-गीताअलि रद मेरी अन्तिम आकांचा १६ दूत जगत के उत्सव में मुझे निमन्त्रण प्राप्त हुआ और इस ग्रकार मेरा जीवन सफल हुआ है, मेरे नेत्र देख चुके हैं और मेरे श्रवण सुन चुके है. इत उत्सव सें वीणा बजाने का कार्य्य मुझे दिया गया था, मुक से जो कुछ हो सका मैने किया, में पूछता हूँ कि क्या अन्त में अब वह समय आ गया है कि अन्दर जाकर तेरे मुखारबिन्द का दर्शन करूँ आर अपना नौख नमस्कार तुझे समर्पित करूँ ? ५ हिन्दी-गीताअलि प्रेस प्रतीक्षा १७ अप्रन्‍्त में शेस के करकसलों में आत्यत्तमर्पण करने के लिए केवल में उस की प्रतीक्षा कर रहा हूँ; इसी से इतनी देर हुई है शोर इसी से इतनी श्रुटियाँ हुई हैं लोग अपने विधि-विधानों से मुके जकड़ने के लिए आते हैं, किन्तु ये उन्हें. दा रात देता हूँ; क्योंकि में तो केवल श्रेम के करकमलों में आत्मसमर्पण करने करे लिए उस की प्रतीक्षा कर रहा हूँ. लोग मुक पर दोप लगाते हैं थोर मुझे अप्तावधान कहते है, निःप्तन्देह उनका दोष लगाना ठीक है. हाट का दिन बीत गया आर काबकाजियों का काम समाप्त हो गया, जो मुके वथा बुलाने आये थे कुषित होकर लोटे, अन्त में श्रेय के करकमलों में भ्रात्मसमर्पण करने के लिए में केवल उच्तकी प्रतीक्षा कर रहा हूँ. हिन्दी-गीताअछि कि प्रेम से शिकायत श्द्ध बादल पर वादल उमड़ रहे हैं और अंधेरा होता जाता है, ऐ ्रेम, तून मुके द्वार के बाहर बिलकुल भ्रकेला क्‍यों बेठा रकखा है ? दोपहर में कामकाज के सथय ये जनता के साथ रहता हूँ, परन्तु आज इस अन्धकार के समय मे क्लेबल तेरी ही आशा करता हूँ यदि तू मुझे अपवा सुख न दिखलाएगा शऔर झुझे विज्ञकुल एक ओर छोड देगा तो न मालूम वर्षा के ये लंबे घण्टे केसे वटेंगे. में आकाश के दूरस्थ घुंघ पर टकटकी लगाए हूँ. और मेरा चित्त चब्चल वायु के साथ विज्ञाप करता हुआ भटक रहा है. १& हिन्दी-गीवाअलि प्रेम-धीर १& स्‍्या, अगर तू न बोलेगा तो में अपने हृदय को तेरे मौच से भर कूँगा और उसे सहन करूँगा. में घुप- चाप पडा रहूँगा और ताएों से भरी शोर घीरता से अपना शिर क्ुकाए हुए रात्रि की मॉति, प्रतीक्षा करेगा. निस्तन्देह ग्रमात का थ्रागमन होगा और अन्धकार का बाश होगा औौर तेरी वाणी की सुनहरी घ्यराएँ थाकाश को चीर कर नीचे की शोर बहँगी. तब मेरे पत्तियों के प्रत्येक घोंसतले से तेरे शब्द गीतों के रूप में उ्ेंगे और मेरी समस्त बन-बाटिकाशों में तेरे घुर फूलों के रूप में खिल उठेंगे. हिन्दी-मीताश्वल्ति त्र्० धन ३५/च-०र:फ़ब-आ कललपरटपआ इसका -१ उलट पर कटककाकता:ए अतरंग-सरोज घब्० जिस दिन कमलपुष खिला, शोक, कि मेरा चित्त इंचल हो रहा था, भर मैंने उसे जाना ही नहीं. पेरी टोऋरी खाली थी शोर पुष की ओर मेरा ध्याव नहीं गया. केवल कमी कभी मेरे चित्त १र उदासी छा जाती थी ओर में अपने स्वप्म से चौंक उठता था, और दत्तिण- समीर में विचित्र सौरम की यधुरता सी भ्रनुभव होती थी. उत्त मन्द मधुर गनन्‍्ध ने मेरे मन में लालसा की यन्त्रणा उतन्‍न करदी, शोर झुके मालूम हुआ कि यह वत्न्‍्त को उत्सुक वायु है जो टछकी पूर्णता के लिए प्यत्ववान है, मैंने तब नहीं जाना था कि वह इतने निकट है, वह मेरी ही है और यह पूर्ण माधुर््य मेरे ही भन्तःकरण की गहराई में ग्रस्कृटित हुआ है. २१ हिन्दी-गीताअलि अब चल दो श्र छुस बार में अपनी नौका को प्रमुद्र में अवश्य डालूँगा किनारे के तौर मेरा समय आलस्‍्य में बीता जाता है, अरे, मेरे लिए यह बडे खेद की वात है. वप्न्‍्त की बहार हो चुकी श्रोर वह बिदा हो रहा है. अब में कुम्हलाए हुए निरर्थक फूलों के बार को लिये रुका पढ़ा हूँ तरंगें कोलाहलयय हो रही हैं, और किनारे पर छाया- दार पथ में पीली पत्तियां कर कर कर गिर रही हैं. किस शून्य की झोर तुम ताक रहे हो ? क्या तुम वायु में फेैलते हुए उल्लास को अ्रनुभव॒ नहीं करते जो घुदूर गायन के छुरों के त्ञाथ दूसरे तट से बह वह कर था रहा है ? * हिन्दी-गीताअलि श्श्‌ हद्यनड्ार घ््यु घसते हुए सावन की घनी।छाया में, दबे पैरों, रात्रि सा निस्तव्ध, और सब पहलयेशलों से बचता इुश्रा, तू चलता हे, शब्दायमान पूर्वी हवा को निरन्तर पुकारों वी / कोकों की ) कुछ परवाह न करके आज प्रभात ने अ्रपनी आँखें मूँद ली है, ओर एक घनघोर घटा का चूँघट सदा जाग्रत नौले आकाश पर पड गया है. कानन भूमि ने गीत गाना बन्द कर दिया है, हर घर के द्वार बन्द हैं, इस निरजेन पथ का तू ही एक पथिक है. हे मेरे एकमात्र मित्र ! हे मेरे प्रियतम / मेरे घर कै फाटक खुले हैं, स्रप्व की भौति पाप से निकल न जाना- घ्र्रे हिन्दी-गीताअलि हक 4 प्रलु-अचार घर - छा तू इस ग्रचण्ड रात्रि में अपनी ग्रेम-्वात्रा के लिए बाहर नित्रला है, भेरे मित्र / भाकाश हंताश कीं तरह विला। करता है. मुझे आज नींद नहीं. रह रह कर में द्वार खोलता हूँ और अपेरे में वाहर की भोर देखता हूँ, मित्र / सामने कुछ दिखाई नहीं देता. में विरिमत हूँ कि तेरा रास्ता क्रिघर है / हे मित्र, कालिमा प्ती काली नदी के किस काले किनारे से, भयंक्रर वन की किस सुदूर सीमा से, अ्रन्धकार की किस गहन गहराई से होकर मेरे पास आने के लिए तू अपने मार्ग पर टोह टोह कर पैर रख रहा है ! हिन्दी-गीताअलि श्् आलठलसी ओर अधघम जीवन से आप है मृत्यु बेहतर हे २७ थूदि दिन बीत गया है, यदि पत्ची अब नहीं चह- चहाते, यदि वायु शिथित्र पड गया है, तब तो अन्धक्ार का भारी घूँघट मेरे ऊपर वेसे ही डाल दे, जेसे तूने पृथ्वी को निद्रा की चहर उढाईं है और कुम्हलाए कमल की पखडियों को संध्या समय चुकुमारता के साथ बंद कर दिया है. उस यात्री की ल्ज्जा और दरिद्रता को दूर कर और अ्रपनी दयामय रात्रि के आश्रय सें उसे पुष्प की मॉति नव- जीवन प्रदान कर, जिसके पदाथों का मोला यात्रा समाप्त होने के पूर्व ही खाली हो गया है, जिस के बस्त्र फूट गये हैं, जिन में धूल भर गई हे श्रौर जित्तका बल क्षीण हो गया है. हि. हिन्दी-गीताअलि प्यारी निद्रा श्प थूकावट की रात में तुझे पर भरोतप्ता करके, बिना प्रयात, मुके अपने आप को निद्रा के भ्र्पण करने दे. मेरे अलसाए हुए चित्तको भ्रपत्री ग्रजा की दरिद् साघना के लिए वाधित मत कर. जागृतावस्था का नवीन आनन्द पुनः अदान करने के लिए तू ही दिन की थक्कीं हुईं श्ातों पर रात का परदा घात्र देता है. ४ दिन्दी-गीताअलि रद प्रेमी का स्वप्ल 4 छृह आया और मेरे पास बेठ गया किन्तु मैं न जागा, मुझ अभागे की उत्त नींद को घिक्‍्कार है. वह ऐसे समय आया जब रात का सन्‍नाटा था. उसकी वीणा उसके हाथों में थी, उसकी मधुर रागनियों से मेरा स्वप्न प्रतिधनित हो गया. हाय / मेरी रातें इस ग्रकार क्‍यों नष्ट होती हैं? अरे [ में उसके दर्शन से क्‍यों बंचित रहता हूँ, जिमकी श्वास मेरी निद्रा को स्पर्श करती है ? ( अर्थात्‌, यो मेरे इतने निकट आ जाता है श्रौर जिसकी श्वास मेरे शरीर में लगती है.) २७ हिन्दी-गीताइलि प्रेम की ज्योति २७ ज्योति, भरे कहों है ज्योति ? इसे कामना की ग्रचश्डानल से ग्रजल्रित करो, हिन्दी-गीताजलि श्द् दीपक है परन्तु उसमें लव का शभ्रणु मात्र भ्रीं नहीं है--ऐ मेरे मन / क्या तेरे ग्रारब्ध में यही है ? भरे, इस से तो तेरे लिए मृत्यु कहीं अच्छी होती. दुःख रूपी दूत तेरे द्वार पर खटखटा रहा है, और उप्तका सन्देशा यह है कि तेरा स्वामी जागता है और रात्रि के अन्धकार में वह तुझे प्रेमामिसार के लिए बुला रहा है. आकाश मेघाच्छादित है और वर्षा की कडी लगी है. न मालूम यह क्या है जो मेरे चित्त में हरकत कर रही है. मुके उत्त का श्रभिप्राय नहीं मालूम, दामिनि की चरणिक छुटा मेरे नेत्रों पर घोरतर श्रन्धकार फेला देती हे, श्रौर मेरा हृदय उस मार्ग की टोह लगाता है जिस की ओ्रोर निशा का गायन मुमे बुलाता है. ज्योति, अरे कहों है ज्योति / इसे कामना की प्रचएडानल से प्रजलित करो, बिजली कडक रही है और शून्याकाश में तनसनाती हुई वायु वेग से बह रही है. रात्रि ऐसी काली है जेसे काला पत्थर. अन्यकार में समय को यों ही न बीतने दो. प्रेम के दीपक को श्रपने जीवन से ग्रजनलित करो- २& हिन्दी-गीताश्षक्ति वासना की बेड़ी श्प्र बेडियों बडी कड़ी हैं, किन्तु मेरे हृदय को बडी व्यथा होती है जब में उन के तोड़ने का यत्त करता हूँ. मुमे केवल मुक्ति को आकांच्ा है, किन्तु उप्तकी ग्राशा करते हुए मुके लज्जा अआती हे. मेरा यह निश्चय है कि तू अमूल्य ऐश्वर्य का भण्डार है और तू मेरा तर्वोत्तम मित्र है किन्तु म्रक में इतना साहमत भौर बल नहीं कि में कूमी तड़क भड़क के सामान को जो मेरे कमरे में भरा है, निकाल बाहर करूँ. में ने जिस चादर को थोढ़ा है वह मद्दी और सृत्यु की चादर है; मै उत्त से घुणा करता हूँ, तथापि जम से उसे गले लगाता हूँ. मेरा ऋण भारी है, मेरी विफलता बडी है, भेरी लज्जा गुप्त है और हृदय को दबाये देती है, तथापि जब में अपने कल्याण के लिए याचना करने आता हूँ तत्र में भय से कॉप उठता हूँ कि कहीं मेरी प्रार्थना सीकार न हो जाय, दिन्दी-गीताजकि कि अपने ही कारागार का बन्दी २8 जिसे में अपने नाम से नामांकित करता हूँ वह इस कारागार में विल्ाप करता है. में सदा अपने सब ओर इस दीवार के बनाने में लगा रहता हूँ; और ज्यों ज्यों यह दीवार आकाश में उठती जाती है उत्तकोी अंधेरी छाया में मेरा सत्मखरूप मेरी दृष्टि से छिपता जाता है. में इस बृहत्‌ दीवार का गर्व करता हूँ भौर मद्दी तथा रेत का गारा उत्त पर चढ़ाता हूँ कि कहीं इस नाम (दीवार) में जरा सा भी छिंद्र न रह जाय; और इस सारी चिन्ता का परिणाम यह होता हे कि मेरा सत्यस्वरूप मेरी दृष्टि से छ्पता जाता है: ३३१ हिन्दी-गीतासलदि हटठीला साथी 3७ तु से मिलने के लिए में भश्रकेला निकला था. परन्तु यह कौन है जो नीख श्रन्धकार में मेर॑ पीछे पीछे चला भरा रहा है ? उस्त से बचने के लिए में इधर उधर हट जाता हूँ किन्तु में उत्त से बच नहीं पाता, वह अपनी घृष्ट चाल से धरणी से धूल उड्ता है; बह मेरे प्रत्यक्ष शब्द के साथ जोर से बोल उठता है. वह मेरा ही तुच्च भ्रात्मा है, मेरे प्रभु / लज्जा उसे छू तक नहीं गई; किन्‍्दु मुके उस्तके संग तेरे द्वार पर भ्राने में लज्जा श्राती है. हिन्दी-गीताअलि देर अद्भुत बन्चन ३१ ४बन्दी / मुके यह तो बता कि तहुमे किस ने धा!?? बन्दी ने कहा :---“मेर स्वामी ने मुझे बॉधा में ने सोचा था कि जगत के बीच घन भर बल में मैं सव से आगे निकल सकता हूँ, थार में ने अपने ही कोश में उस रुपये को भी जमा कर लिया जो सुझे राजा को देना चाहिए था. जब में निद्रा के वशीभृत् हुआ तो उस शय्या पर लेट गया जो मेरे स्वामी क्री थी भौर जगने पर मुझे मालूम हुआ किये अपने ही कोशालय का वन्दी हूँ.?? “वन्दी / मुके यह तो वता कि इस श्रटूट वेडी को किसने बनाया 7??? बन्दी ने उत्तर दिया,---“मैं ने स्रयम्‌ ही बड़े यत्व से इस वेडी को बनाया हे. में सोचता यथा कि मेरा ग्रवत्न ग्रताप सारे संसार को बन्दी कर लेया ओर अकेला में ही शान्ति पूर्वक स्वाधीनता को भोगूँगा, अतएव रात दिन घोर परिश्रम कर के बडी बडी भट्टियों और हथोंडों द्वारा इस वेडी के बनाने में ततर रहा. शभ्न्त में जब कलाम समाप्त हुआ और कड़ियाँ पूर्ण और अट्ट हो गईं, तो मुमे ज्ञात हुआः कि उस ने मुझे खूब जकड लिया है. मा ब डरे हिन्दी-गीवाञअल्ि विलचण प्रेम ३२ संतारी जनों का ग्रेम सुके सब तरह से बॉधने का यत्न करता है और मेरी स्वतंत्रता को छीन लेता है; परन्तु तेरा श्रेम जो उनके श्रेम से बढ़कर हे, निराला है, वह सुके दासता की शृंखला में नहीं बॉधता, किन्तु मुझे स्वतंत्र रखता है. वे मुके अकेला नहीं छोडते क्रि कहीं मे उन्हें भूल न जाऊँ (इस एकाग्रता के श्रभाव का परिणाम यह है कि) एक एक कर के दिन बीतते जाते हैं भौर तू दिखाई नहीं देता, ह श्गर में अपनी प्रार्थनाओं में तुके नहां पुकारता, श्रगर अपने हृदय में तुके घारण नहीं करता, ठंब भी तेरा प्रेम मेरे ग्रेम की ग्रतीज्ञा करता है. हिल्दी-गीताशलि ३८ घलोभन का प्रभाव ३ दिन के समय वे मेरे घर में आये भौर कहने लगे-- ८#हमें श्रपने यहाँ रहने दो, हम जरा सी जगह में अपना निर्वाह कर लेंगे.?” उन्होंने कहा, “ईश्वर आराधना में हम तुम्हारी पहा- यता करेंगे और जितना ग्रताद हमें मिल्रेगा उसी से हम संतुष्ट रहेंगे” यह कह कर वे एक कोने में जुपचाप आर दीन होकर बैठ गये, किन्तु अब मैं देखता हूँ कि रात्रि के अन्धकार में वे प्रबल और ग्रचणड होकर मेरे पवित्र मन्दिर में घुस आये और अप्वित्र लोभ से श्रेरित होकर मेरे परमेश्वर की वेदी से चढ़ावों को उठा लेगये, झ््पं हिन्दी-गीताअसि स्वल्प याचना ३8 सुर में ममत्र की केवल इतनी मात्रा रहने दे जिस से में तुके अपना सर्वस्त कह सकूँ मुझ में कामना की केवल इतनी मात्रा रहने दे जिस से में हर दिशा में तुमे श्रनुभव कर सरहूँ, हर वस्तु में तु प्राप्त कर सकूँ भौर हर घडी अपना प्रेम तुमे अर्पण कर सकूँ. मुक में अहंकार की केक्‍्ल इतनी मात्रा रहने दे जिस से में तुके कभी न छिपा सर्कू. मेरी वेडी का केवल इतना भाग रहने दे जिससे में तेरी इच्छा के साथ बँधा रहूँ और अपने जीवन में तेरे उल्ेश को पूरा करूँ, श्रौर वह वेडी तेरे प्रेम की है. हिन्दी-गीताजलि कै आदशे भारत प्‌ झगें चित्त भयशून्य है, जहाँ मल्तक उच्च रहता है, जहाँ ज्ञान मुक्त है, जहाँ जगत (राष्ट्र) चुद्र घराऊ दीवारों से खण्ड खण्ड नहीं कर दिया गया है, जहाँ शब्द सत्यता की गहराइ से विक्रलते हैं, जहाँ श्रनथक्त युरुपार्थ अपनी भुजाओं को पूर्णदा की ओर बढ़ाता है, जहों तक की निर्मल घारा ने अपने मार्य को मृत-रृढि (र्य-खाज) की भयावक मत- भथूसि में नष्ट नहीं कर दिया है, जहा (के निवात्रियों का) मन ध्दा जिस्तृत होने वाले विचारों और कम्मों की ओर अग्रतर रहता है. ऐ मेरे पिता / सतन्त्रता के ऐसे दिव्य लोक में मेग प्यारा देश जागृत हो, ३७ हिन्दी-गीताअषलि बल-मित्ता । ६ सेरे अर / मेरी ठुक से यह श्रार्थना है कि मेरे हृदय की दरिद्रता क्री जड पर तू कुठाराघात कर. वह बल दे जिठ से में छुख और दुख को सहज ही में तहन कर सकेँ, मुके वह बल दे जिस से से अपने ग्रेव को सेवा और परोपकार द्वारा सफल कर सके. मुझे वह बल दे जिस से ये दीन दुखियों को कभी परित्याग न करूँ; और अपने घुटनों को श्रभ्रिवानी सचा- घारियों के सामने कभी न कुक्ारऊँ. सके वह बल दे कि जिम से में अपने मन को नित्य की तुच्छ बातों से बहुत ऊपर रकरूँ. मुके वह बल दे जिस से में अपनी शक्ति को प्रेम पृव्क तेरी इच्छा के वशौभूत कर दूँ. हिन्दी-गीताअलि रा अनबन्‍्त यात्रा ३७ जब मेरी शक्ति ( क्ञीणता की ) अन्तिम सीमा पर पहुँची तो मैंने सोचा कि मेरी ( जीवन ) यात्रा का अन्त हो गया, अर्थात्‌ भ्रव मेरे आगे का मार्ग बन्द होगया, खान पान की सामग्री सब खर्च होगई और अ्रव समय आगया है कि में शान्तिमय एकाग्रता भर अ्रविख्याति में आश्रय लूँ. किन्तु में देखता हूँ कि मुक में तेयी इच्छा का भ्रन्त नहीं होता, और जब पुरातन शब्द मर जाते हैं तो हृदय से नूतन स्वरावल्रि का ग्रादुर्भाव होता है; जहों ग्राचीन मार्ग नष्ट हो जाते हैं वहाँ नव्रीव देश अपने अद्भुत चमत्तारों के साथ ग्रकट होते हैं, 9& हिन्दी-गीताश्नलि केवरू तेरी चाह द्र् तेरी चाह है, मुझे केवल तेरी चाह है, हे नाथ, मेरा मच सदा यही कहता रहे. सारी वासनाएँ गत दिन मेरे चित्त को चम्चल रखती हैं, मिथ्या श्ौर नितान्त निस्सार हैं. रात्रि जैसे प्रकाश के लिए की गई पार्थना को अपने श्न्धकार में छिपाये रखती है--अर्थात्‌ रात्रि के अन्यकार में जैसे प्रकाश अग्रगटरूप से विद्यमान रहता हे--वेसे ही मेरी अचेतन अ्रवस्था में भी मेरे अन्तःकरण में यह पुकार उठती हे, तेरी चाह है, मुझे केवल तेरी चाह है. जेसे श्रॉयी जब शान्ति पर श्रपना बल्िप्ट आघात करती है ( अर्थात्‌ जब्र शान्ति को मंग करती है ) तब भी वह अपना अन्तिम आश्रय शान्ति में ढूँढती है, वेसे ही मेरा द्रोह तेरे शरेम पर भराधात करता है और तिसपर भी उसकी पुकार हे-तेरी 'चाह है, सके केवल तेरी चाह है. हिन्दी-गीताअलि कक सकट-हरण ३& ज्ञूब मेरा हृदय कठोर और शुष्क होजाए तो मेरे ऊपर करुणा की कडी बरताइए., जब मेरे जीवन से माधुरी ( नम्नता, दयादि ) लुप्त हो जाय तब मेरे पास गीत-छुधा के साथ श्राइए, जव सांतारिक काम काज का प्रचंड कोलाहल प्तव शोर से इतना उठे कि में सब से अ्रलयग होकर एकान्त में जा बेढूँ, तो हे शान्ति के नाथ, श्राप घुख और शान्ति के साथ मेरे पास आइए, जब मेरा कृपण हृदय दीन हीन होकर एक कोने में बैठ जाय, तो हे मेरे राजनू, द्वार सोलर कर आप राज-समारोह के साथ आइए. जब वासना, साया और मल से मेरे मन को श्रन्‍्धा करदे, तो, हे शुद्ध और चेतन ग्रमु, आप अपने प्रकाश और गजना के साथ आइए. ४१ हिन्दी-गीताइलि वर्षा के लिये प्राथना छ6 हे इन्द्र, मेरे शुष्क हृदय में श्रति दीर्घकाल से अना- वृष्टि है / दिकू-चक्र ( ज्षितिज ) में भयंकर नग्नता व्याप्त हे-मेघ का श्रावरण नाममात्र के लिए नहीं है, छुन्दर शीतल वॉछार का तनिक चिह्न भी नहीं दीखता, हे देव, यदि तेरी इच्छा हो तो काल के समान काली और कुपित थ्रोधी को भेज और दामिनि की दमकों से गयन मंडल को थराद्योपान्त चक्रित करदे, परन्ठु हे प्रभु, इत् व्याप्त, निःशच्द, निरतव्य, पखर, निठुर ताप को बुलालो, तरह तीत्र नेराश्य से हृदय को दहन किए देता हे, जेसे पिता के क्रीोष करने पर माता सनन्‍्तान की ओर सजल बयनों से देखती है बेसे ही करुणा-रूपी मेघों को ऊपर से मुझ पर वरसने दे. हिन्दी-गीता अलि ४ प्रेममयी प्रतीक्षा 8१ हे मेरे त्रियतम, तू अपने आप को छाया में छिपाए सब के पीछे कहों खड़ा है ! लोग तुमे कुछ नहीं समभते और धूल से भरी सडक पर ठुके दवा कर तेरे पात्त से निकल जाते हैं. में पूजा की प्तामग्री सजाकर घंटों तेरी चाट जोहती हूँ; पथिक भाते हैं और मेरे फूलों को एक एक करके लेजाते हैं. मेरी डलिया करीब करीब खाली होचुकी है. पग्रातःकाल बीत गया और दोपहर भरी निकल गई. संध्या के अंधेरे में मेरे नेत्रों में नींद आ रही है. निज ग्रहों को जानेवाले मेरी ओर देखते हैं और मुसकराते हैं तथा सुके लजाते हैं. में एक मिखारिव लडकी को भाँति अपने मुख पर अ्रंचल डाल कर वेठी हूँ और जब वे मुमकसे पूछते हैं कि तू क्‍या चाहती है, तो में अपनी अंखें नीचे कर लेती हूँ भौर उन्हें उत्तर नहीं देती. हाय, में उनसे केसे कहूँ कि मे उनका रास्ता देख रही हूँ और उन्होंने आने का वादा किया है. ल्ाज के 8३ हिन्दी-गीताञल्ि मारे में केसे कहूँ कि यह दरिद्रता ही मैंने मेंट के लिए यक्खी हे ब्स अहो, मेने इस अ्भिमान को अपने हृदय में छिपा रसा है, मे घास पर वेठी हुई श्राशा भरे नयनों से थाकाश की थ्रोर निहारती हूँ और तेरे श्रचानक श्रागमन के वेधव का सप्त देखती हूँ, स्प्त में सत्र दीपक जल रहे हैं, तेरे रथ पर चुनहरी ध्वजाएँ फहरा रही हैं और लोग मार्ग से यह देख कर भ्रवाक्‌ खड़े रह जाते हैं कि तू इस फटे पुराने कपड़ों को पहनने वाली मिखारिन लड़की को धूल से उठाने के लिए अपने रथ से उतरता है और उसे अपने एक थोर बेठाता है, जो लाज और मान के कारण ग्रीष्प- पत्रन से लता की भॉति ऑपती है. समय बीतता जाता हे श्रोर तेरे रथ के पहियों की कोई आ्रावाज भ्रव तक सुनाईं नहीं देती. बहुत से जल वी धृमधाम और चमक दमक के साथ निकलते जाते हैं. क्‍या केवल तू ही सब के पीछे छाबा तले छुपचाप खड़ा रहेगा और क्या केवल से ही प्रतीक्षा करती रहेंगी और व्यर्थ कामना के बशीभूत हो रो रो कर अपने हृदय को जी करूँगी ? हिन्दी-गीताश्ञलि ४2 2. संयोग में विछम्च ओर आशा ४8२ | ५ का यह 4 उचय ४ था [9] द्र्ट दोनों बिल्कुल संवरे यह निरचय हुआ था कि हम दोचों-तू श्र मैं-एक नाव में वठ कर चलेंगे और संसार में कित्ती को हमारी इस लक्षहीन भर उद्देशहीन यात्रा का पता न लगेगा. उस अपार सागर में तेरे शान्त श्रवण और सघुर सुप्त- क्यान पर मेरे गीत तरनगों की तरह खतंत्र थोर शब्दों के बन्धन से मुक्त मधुर लनियों में परिणत होजायेंगे क्या वह समय अब तक नहीं आया हैं ? क्‍या अभी + कुछ है काम किये जाने को वाकी हैं ? यह देखो, किनारे पर्‌ अधरा होने लगा ओर शाम के कुटपुटे में समुद्र के कर अपने घोसलों को जा रहे हैं खुलजॉय और न जाने सूब्यास्त हे समान यह नोछा सतत्रि में 8प हिन्दी-गीता अ्रक्ति अज्ञात आगसन का स्मरण 8३ छक दिन वह था जब में तेरे लिये तेयार न था परन्तु तिसपर भी, हे मेरे स्रामी, एक साधारण जन की भाँति मेरे बिना बुलाये और मेरे बिना जाने तू ने मेरे हृदय में ग्रवेश किया और मेरे जीवन के कुछ श्रनित्य कणों पर नित्यता की मोहर लगादी- और थ्राज जब अभ्रकस्मात्‌ उन पर मेरी दृष्टि पड़ती हैं श्र तेरे हस्ताक्षर देखता हूँ तो पता लगता हे कि पे (क्षण) त॒च्छ विस्मृत दिनों के हर्ष और शोक की घटनाओं की स्मृति के साथ बिखरे और बुलाए हुए पड़े हैं. मुझे लडकपन के खेल खेलते हुए देख कर तू ने धणा से अपना मुँह नहीं फेरा, तेरे जिन पदों की ध्वनि मैंने अपने क्रीडास्थल में घुनी थी, आज उर्हाँ को प्रतिध्वनि तारे तारे में ँज रही हे. हिन्दी-गीताश्षल्ति चैयेपूण आशा ४४ सबक के किनारे पर जहाँ प्रकाश के पीछे अन्धकार होता है ऑर गर्मी के पीछे बरसात होती है, तेरी वाट जोहने और तेरा मार्ग देखने में मुके वडा आनन्द आता हैं दूतगण्‌, लोकों से तम्बाद लाकर मुमे वर्ाई देते हैं और तेजी से अपने रास्ते चले जाते हैं, मेरा मन धघन्द्र ही अन्द्र अतनन्‍न होता है और बहती वायु सुगन्धित मालूस होती है. ग्रातःकाल से लेकर सायंकाल तक अपने द्वार के सामने वेठा रहता हूँ और मेरा निश्चय हे कि अ्रकस्मात्‌ पुख की वह घड़ी आवेगी जब मुके उसके दर्शन होंगे, इस बीच में में अकेला हँपता और गाता हूँ. और इसी वीच में वायु आशा की घुगन्ध से भर रही हे. 8७ हिन्दी-गीताअकि आता है छ४ क्या हमने उतस्तके चरणों को मन्द घ्वचि नहीं सुनी है? बह आ ता है, वह आता है, वह नित्य आता है. हर घडी, हर काल, हर दिन और हर रात में वह आता है, श्राता है, वह नित्य आता है. मैंने अपने मन की भमिन्‍न मिन्‍न दश्ाओं में नाना ग्रकार के गीत गाए है किन्तु उन सबके सुर्यों से सदा यही उद्घोषित हुआ है, वह आता है, वह आता है, वह नित्य आता है. यह उसी के चरण कमल हैं जो शोक और दुःख में मेरे हृदय को दबाते हैं और यह उसी के पदार्विन्द का सुनहरा संसर्ग हे जो मेरे आनन्द को स्फुरिर्त करता है लो, वह आगया डदे्‌ | मे नहीं जानता कितू कितने काल से झुक से मिलने के लिए मेरे निक्रट निरन्तर आ रहा है. तेरे सूर्य और चन्द्र ठुके सदा के लिये मुक से नहीं छिपा सकते. प्रभात और संध्या के समय अनेक वार तेरे चरणों की ध्वनि धुन पड़ी है और तेरे दूतों ने मेरे हृदय में आकर मुके चुपचाप बुलाया है. में नहीं जानता कि आज येरा मन इतना विचलित क्‍यों हैं, श्रौर मेरे हृदय में आनंद के भाव क्‍यों "उठ रहे हैं ? जान पड़ता है कि अब काम काज बंद करने की बेला था गड है और में तेरे मधुर आगमन की मंद गंध को वायु में अनुभव करने लगा हूँ के हे 9& हिन्दी-मीताञ्लि साक्षात दर्शन 8७9 उप की रास्ता देखते हुए प्रायः सारी रात बीत गई, मुके डर हे कि जब ये थक कर सो जाऊुँ तो कहीं वह मेरे द्वारा पर न आजाय, मित्रो, उसके लिए मार्ग खुला रखना-उसे कोई सना न करना, यदि उत्तके पेरों की झ्राहट से मेरी नींद न खुले तो कृपा कर कोई मुझे जयाना मत, में पत्तियों के कलरव और वायु के कोलाहल से ग्रातःकालीन प्रकाश के महोत्सव में निद्रा से उठना नहीं चाहता, यदि गेरा स्त्रासी मेरे द्वार पर अचा- नक शथ्रा भी जाय तो शान्ति से सके सोने देना, आह, मेरी नींढ़ / मेरी प्यारी नींद / तू तो उप्ती समय विदा होगी जत्र वह तेरा स्व करेगा. ऐ मेरे बंद नेत्रो / तुम तो श्रपनी पलकों को उच्त की मुसक्यान की ज्योति में खोलोगे, जब वह मेरे सामने स्वप्न के समान आकर खडा होजायगा, सब ज्योतियों भ्रौर सब रूपों में सब से पहले मेरी दृष्टि में उसे भाने दो, मेरी जाग्रत आत्मा में आनन्द की सब से पहिली तरंग उत्की कटाक्ष से उत्तव होने दो, म॒के ज्योंही अपने स्ररूप का ज्ञान हो त्योंही सुके उसकी उपलब्धि होने दो: हिन्दी-गीताश्नल्रि प० सरल सिद्धि छ्ठप्र शान्ति का ग्रभात-रूपी समुद्र पत्तियों के गान-रूपी तरवों में फूट निकला, मार्ग के दोनों और पृष्ठ खिल रहे थे और चुनहरी किरणें बादलों की दरारों से निकल कर इधर उधर छिटकी हुईं थीं. परन्तु, हम कार्यवश अपने रास्ते पर चले जाते थे, थ्रौर हम लोगों ने सुख के कोई गीत नहीं गाये और न कोई खेल ही खेला, बाजार के लिए हम गाँव में नहीं गये और न हम हेँसे बोले ओर न भार्ग सें हा ठहरे, ज्यो ज्यों समय वीतता जाता था हम अपने पेर तेजी से उठाते जाते थे. सूर्य मध्य आकाश में चद गया. पत्नी छाया से कुह्ँ कुह्ँ करने लगे. दोपहर की तम्तवायु में कुम्हलाई हुई पत्तियाँ नाचर्ती और चक्कर लगाती थीं. गडरिये का लड़का बट की छाया में आचेतन पडा था. में जलाशय के पास लेट गया और अपने थके हुए भ्रंगों को घास पर फेला दिया. - और हिन्दी-गीताइलि मेरे ताथियों ने मेरी हँपी उडाई और घमरणड से सिर ऊँचा किये हुए तेजी से थाये बढ़े चले गये. उन्होंने पीछे शोर एक वार भी नहीं देखा शोर न अ्भ्रिवादन किया थोडी देर में चुन्दर नील छात्रा में दृष्टि ते छिप गय, उन्होंने भ्रनेक्र मेंदानों थोर पहाड़ियों को पार किया और कितने ही बड़े बड़े देश उनके रास्ते में एडे, वीर यात्रियों, तुम धन्य हो. उपहास शोर बिन्दा ने मुक से उठने का आग्रह किया परन्तु सेरे हृदय ने एक न मानी, सेंने अपने आपको रमणीय वचों की छाया के तले आनन्दमय अगराघ अगोरव में निमरन कर दिया, रवि-रश्मियों की सुन्दर कारीगरी से विभूषित हरित छाया का विश्राम घीरे धीरे अपना श्रभाव मेरे हृदय पर डालने लया, में यह भूल याया कि ये किस लिए यात्रा करने निक्रना था. मनोरस छाया शोर मधुर यान करे कॉतुक में सुके अनायाप्त ही आचेतन होजाना पडा. अन्त में जब मेरी नींद खुली और मैने अपने नेत्रों को खोला तो मैंने देखा कि तू मेरे पातत खड़ा है भर अपनी मंद हँसी से मेरी निद्रा को प्लावित कर रहा है. कहाँ तेरे मार्ग की थकाने वाली लम्बाई और ठुक तक पहुँचने की कठिनाई का भय, और कहाँ यह घुगमता और छुलमता / किए हिन्दी-गीता अति पे सच्चे भाव की महिमा ४& तुम अपने सिंहासन से नीचे उतर आए और मेरी कुटी के द्वार पर था खडे हुए. ५ में अकेला एक कोने में वैठा गा रहा था और मेरी आज्ाज तुम्हारे कर्णयोचर हुई. बत्त, तुम नीचे उतर आए और मेरी कुटी के द्वार पर आकर खडे होगए. तुम्हारी सभा में बहुत से ग्रवीण गवेये है और वहा सदा गाव हुआ करता हे, परंतु इधत नवस्तिखिये के गाने से तुम्हारा प्रेम फड़क उठा, मेरा एक करुण अल्प छुर विश्व के विराट-यान में मिलन गया और एक पुष्प-रूपी पारितोषिक लेकर तुम नीचे उतर आए भर सेरी कुटी के द्वार पर ठहर गए. फ्र्‌३ हिन्दी-गीताअलि दान मसहात्म्य पू८ ज्ञत्र में द्वार द्वार मिक्षा मायने के लिए ग्राम में गया था तब एक शोभामय स्वप्न की भोति दूर से आता हुआ तेरा स्र-रथ दिखाई दिया और में विस्मित हुआ कि यह राजों का राजा कौन है हिन्दी-गीताजइलि पछ गेरी आशाएँ उच्च होगई और येंने सोचा कि मेरे दुर्दित का अब अन्त आ पहुँचा है, भोर में इस आशा में कि आज बिना माँगे ही मुके मिक्षा मिलेगी, खड़ा होगया. रथ मेरे पात्त आकर हक गया. मेरे मुख पर तेरी दृष्टि पडी और तू हँलता हुआ रथ से उतर आया. मुझे प्रतीत हुआ क्रि मेरे जीवन का भार्योदय होंगया. इसके वाद तूने अपना दाहिना हाथ अकस्मात्‌ मेरी ओर बढ़ाया और कहा, “रे पाप्त मुझे देने के लिए क्या है !7? अरे, यह क्‍्याही राजकीय उपहास है कि एक मिखारीं के सामने भिक्ता के लिए तू अपना हाथ फेलावे / में यह देख कर्‌ सटपटा गया और अनिश्चित अवस्था में खड़ा रह गया, तदुपरान्त मैने श्रपनी कोली से अब का सबसे छोटा दाना धीरे से तिकाला और उसे दे दिया. परन्तु जब संध्या समय मेने अपनी कोल्ली को शआर्गन से खाली किया तो दानों को ढेरी में सोने का एक कण मिला जिस पर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ. मेँ फूट कर रोगा और यह इच्छा हुई कि मेने अपना सर्वस्त्र साहस पूर्वक क्‍यों न दे डाला, रर हिन्दा-गीताअकि अवसर को उपेक्षा प्र शात्रि का अंधकार छा गया था. दिन के सत्र काम तगाप्त होगये थे. हमारा ख्यात्त था कि जिनको श्राना था वे आ चुके, ग्राम के सब द्वार बंद हो यये थे, केवल कुछ थे फहा कि “महाराज आने वाले है77 कितु हसने हँसकर कहा “नहीं, ऐसा नहीं हो सकता.?” अत्र मालूम पद्धा कि द्वार पर खटखटाइट है, इतत पर हमने छद्रा ह ५४0 5 एम क्न्य कक कं कक जन्‍ल्‍्ज कल्क- पलों असम. जानयकर छ ऑिकानकूर, “हवा के सिवा श्रोर क्या हो प्कता है. बस, दोपक दुसका ई 35 न्‍् लत >३२ न्ज 2 आकनम: के काटूत कि आज * कलेक अकक कि दिये भार सोने के लिए लेट ये... कुछ जाप छाज उठे, हिन्दी-मीताअलि ४६ “अब दूत आ पहुँचे.” किन्तु हमने हँस कर कहा, ““नहीं वह हवा ही हैं सूनसाच रात में फिर एक आवाज आई, हम लोग नींद में समझे कि यह दूर » चादलों की यरज है. लो. अत्र प्थ्वी केंपी, दीत्रालें हिलीं और हमारी निद्रा में फिर विध्व पद्धा, कुछ लोग कहने लगे कि “यह पहियों को आवाज है.? किन्तु हमने औषाई में वडबढाते हुए कहा, “नहीँ, यह तो मेघों की गजना हे.? अमी रात का अपेरा वाकी था कि भेरी बज उठी आवाज थाई, “जायो, विल्म्ब मत करो.” हमने दोनों हाथो से अ्रपनी छाती दावली झोर ययसे क्ॉप उठे, कुछ ने कहा, “लो, राजा की ध्वजा दिखाई देती है.” हम पेरों के बल खड़े होगये ऑर चिल्लाये, “अब देर करने का उम्य नहीं हैं, महाराज आ पहुँचे-आरती और तिहासन क्हों हैं, हॉ, कहों है मबन, और कहाँ हे सारी सजावट.?” एक ने कहा, “अब रोना वथा हे, खाली ही हाथों से स्वायत करो और अपने के- सजे घर में ले थाओ., द्वार खोल दो और शंख बजने दो, अंधर घर का राजा आया है, शझाकाश ये मेघ यरज रहे अन्धकार दामिनि को दमक से कम्पायमान है, अपने फटे पुराने आसन को लेगाओ और ऑयगन में विछा दो.?? 80४ ४७ हिन्दी-गीताझलि हर + | मेरा नवीन शुगार ५२ मऊँने सोचा था कि गुलाव के फूलों का जो हार तेरे गले में है उसे मैं ठुकसे मार्यूया, किन्तु मेरा साहम नहीं पडा, . मैं आतःकाल तक हुए थ्राशा में बेठा रहा कि जब तू चला जायगा तो तेरी शब्या पर हार के एक दो पुथ मै भी पा जाऊँगा. किन्‍्ध एक मिखारी की मॉति मेंने बहुत सवेरे उसकी तलाश की और फूल की एक दो पेंखडियों के सिवा भ्रौर कुछ नहीं पाया. शरे, यह क्या है जिसे में वहाँ देखता हूँ / दू ने अपने ग्रेम का यह कैसा चिह्न छोडा है! वहाँ न तो कोई पुष्प है और न गुलाब-गात, यह तो तेरी भीषण केंपाण है जो एक ज्वाला की भति प्रजलित होती है. और इच्ध- वज के समान भारी है. प्रभात की नवीन ग्रभा भरोखों से श्राती है और तेरी शय्या पर फैल जाती हैं हिन्दी-भीवा अललि पर्द प्रातःकालीन पत्ती चहचह।ते हैं और मुम से पृद्धते हैं, तुके क्या मिला ? नहीं, न तो यह पुष्ठ है और न गुलाब- पात्र, यह तो भीपण #पाण है मैं बेठ जाता हूँ भर चकित होकर सोचता हूँ कि यह तेरा कैसा दान है ? मुझे ऐसा कोई स्थान नहीं मिलता जहाँ मेँ इसे छिपा सकूँ. में दुर्वल हूँ और इसे पहेनते हुए मुझे लाज धाती है, ओर जब में इसे अपने हृदय से लगाता हैँ तो वह मुझे पीडा पहुँचाती है. तिस पर भी में इस वेदना के मान को-तेरे इस दान को-अपने हृदय में धारण करूँगा. आज से सेरे लिए इस जगत में भय का भ्रमाव हो जायगा और मेरे सारे जीवन-संग्राम में तेरी जय होगी. तू ने सत्यु को मेरा साथी बनाया हे और में अपने जीवन-रूपी सुकुट से उसके मस्तक को सुभूषित करूँगा, तेरी कृपाण्‌ मेरे सब बन्धनों को काटने के लिए मेरे पास है और मेरे लिए अ्रव सांसारिक कोई भय न रह जायगा, आज से में समस्त तुच्छ शंगारों को तिलांजलि देता हूँ. ऐ मेरे हृदयनाथ, आज से एकान्त में बेठ कर रोने और प्रतीक्षा करने का अन्त है. आज से लज्जा भौर संकोच की इतिश्री है. तू ने श्रपनी कृपाण मुझे शुंगार के लिए प्रदान की है. गुड़ियों का प्ताज-ब्ाज मेरे लिए अब उचित नहीं है. ६ हिन्दी-गीताअलि | किक चूड़ी और खड़ग की तुलना है 8:। तेरी चूड़ी क्या ही सन्दर है. वह तारों से खचित भरे शसंख्य रंगबिरंगे रत्नों से चतुरतापूर्वक्कष जटित है « परच्ठु तेरी बिजली के त्मान बॉछी खड्ग इससे भी अधिक मनो- हर मुके जान पड़ती है; वह विष्णु के गरुंड के फैले हुए पंखों की माति है और डूबते हुए सूर्य की रक्त-ज्योति में पूर्णतया सी हुई है काल के अन्तिम अहार से उत्तर हुई अत्यन्त तीत्र वेदना में जीवन के भ्रन्तिम श्वात्त की भाँति वह कँपकेंपाती है. वह उस शभ्रात्मा की पवित्र ज्योति के समान चमकती है, जिसने अपनी एकही भीषण जाला से पार्थिव भावों को भर्म कर डाला है. तेरी चूड़ी क्या ही उुन्दर है. हे तारों सहदश रलों से जटित है; किन्तु तेरी खड़ग, हे वजपाणि, चरम सॉन्द्य से रची गई है जिसको देखने या जिस पर सोचने से भय मालूम होता है. री द् हिन्दी-गीता श्षलि अनोखा परोपकार पूछ मैने तुक से कुछ नहीं मोगा; मैने अपना नाम तुमे नहीं बताया, जब त॒ विदा हुआ तो मेँ चुपचाप खड़ा रहा. द्च्र हिन्दी-गीताञ्त्ति में उस कुप्े के पास अकेला था जहाँ वक्ष की छाया तिरदी पड़ती थी, जहाँ रमणियों अ्रपने घटों को मुँह तक भर कर अपने अपने घर जा रही थीं. उन्‍होंने मुके चिहल्ठाकर बुलाया प्रोर कहा, “हमारे साथ शभराशरो, प्रभात तो बीत गया और मध्याह हो रहा है.” किन्तु में श्रालस से ठिठ# गया शोर संकल्प विकल्पों में डूब गया. जब्र तू आया तो मैंने तेरी पदध्वनि नहीं चुनी. जब तेरी अखिं मुक पर पर्डी तो उन पर उदासी छाई थी, जत्र तू ने धीर्मे सर से कहा. “अरे, में एक प्यासा प्रथिकर हूँ”, तब्र तेरा कश्ठ थका हुवा था. में यह घुनकर चोंक पड़ा आर अपने घट से तेरी अंजुली में जल्ल डाला, शिर के ऊपर पत्तियाँ सडखडा रही है, कोयल ने अदृश्य अच्चेरे में कुह कुट का राग अलापा और सडक की मोड से पुणों की सुर्गंधि का श्रागमन हुवा. जब तू ने मेरा नाम प्ूँढा वो लज्ञावश में अवाकू रह गया, वास्तव में मैंने ऐसा कौन सा तेरा कार्य किया था जिसके लिए तू मुझे याद रखता £ किन्तु मेरी यह स्मृति कि मैं जल देकर तेरी प्यास बुका सका, मेरे मन मे सदा रहेगी और माधुर्य मे विकसित होगी- हिल्दी-गीताअलि ' दर च>क दुःख में सुख को आशा फप हब] तुम्हारे हृदय पर आलस्य छाया हुआ है भ्रोर तुम्हारे नेत्रों में निद्रा श्रव तक विद्यमान हैं. क्या यह सम्बाद तुम्हारे पास नहीं भाया कि पुष्प बड़ें ऐश्वर्य के स्ताथ कंटकों में राज्य कर रहा है ? धरे जगे हए जाय, समय को वुथा न जाने दे / च्ऊ पथरीले पथ के अन्त में, श्रगम विजन देश में मेरा मित्र अकेला बेठा हुआ है, उसे घोखा मत दो, धरे जगये हुए जाय / यदि मध्याह सूर्य के ताप से गगन कोॉषे, या हॉपे- तो क्या / यदि तम्त बालू पिपात्ता के अंचल को फेला दे तो क्या ? क्या तुम्हारे भन्तःकरण में आनन्द नहीं हैँ ? क्‍या तुम्हारे प्रत्मेक्त पय पर मार्य की वीणा वेदना के मधुर स्वर में न बज उठेयी ? द्रव इहेन्दी-गीताअलि औमियों की एकता ५६ क में ठुके भरपूर श्रानन्‍द आता है, इसलिए अपने इुचे आसन से ठुके नीचे उतरना पडा है. है तर्वभुवनेश्वर, यदि मैं न होता तो तेस ग्रेम कहों होता तू ने मुझे इस सारे ऐश्वर्य मे साक्ी किया है, मेरे हूदय में तेरा आनन्द अनन्त लीलायें किया करता है. भरे जीवन में देरी इच्छा सदा खत्प घारुए करती है. है राजराजेश्वर, तभी तो मेरे हृदय को मोहित करने के लिए तू ने अपने आपको छुन्दर्ता से विभूषित किया है और तभी तो तेरा ग्रेम येरे ग्रेम में लीन होजाता है, और वहीं पर दोनों की पूर्ण एकता में तेरा दर्शन होता है. हिन्दी-गीताशलि पड प्रकाश ५७ प्रकाश, मेरे प्रकाश, भवन को भरने वाले प्रकाश, नयनों को चूमने वाले प्रकाश, हृदय को मधुर करने वाले प्रकाश, ऐ मेरे प्यारे, प्रक्राश मेरे जीवन के केन्द्र पर नृत्य कर रहा हे, प्रकाश मेरे प्रेम करी बीना बजा रहा है, अकाश से श्राकाश सें जागृति होती है, वायु वेग से बहती हे और तारी एथी हँसने लगती है, प्रकाश के सागर में तितलियों अपने पाल (पंख) फैल्ाती हैं. ग्रकाश को तरयों की चोटी के ऊपर महिका ओर मालती हिलोरें मारती हैं. मेरे प्यारे, प्रकाश की क़िरणें बादलों पर पड कर सुवर्णरूप होबाती हैं और सहसों मणियों को यगनमण्डल में |बिखराती है. मेरे प्यारे, पत्ते पत्ते पर अपरिमित थानन्दोल्लात फेल रहा है. चुस्सरिता ने अपने कूलों को डुबो दिया है और आनन्द की बाढ़ उसड रही है. द्प हिन्दी-गीता अलि विश्वव्यापी आनन्द पृ८् उस आनन्द के सत्र सुर मेरे अन्तिम यीत में आकर मिल जाएँ--जिसके बश होकर भूमि अपने ऊपर घनी घातत अ्रत्यन्त अचुरता से फैला लेती है; जो वमक अ्राता- जीवन श्रौर मृत्यु-की इस विस्तृत संत्तार मे नचाता हे, जी तृफान के साथ श्राता है और अट्टहाप्त के साथ सारे जीवन को हिलाता श्रोर जगाता है, जो दुख के खिले हुए लाल कमल के ऊपर अपने ऑश्रों से युक्त शान्ति से विराजता है, जो सर्वस्त को पूल में फेंक देता है और मुँह से एक शब्द भी नहीं निक्रालता« छिन्दी-गीताअलि दिये + भ्रक्धति में इेश्वरीय प्रेम का दिग्दशन ३& पे मेरे प्रियतम, में जानता हूँ कि यह स्वर्शमय प्रकाश जो पत्तियों पर नाच रहा है, यह आलसी वादल जो आकाश में इधर उधर फिरते हे, भोर प्रभात की मन्द मनन्‍्द यह वायु जो मेरे मस्तक को शीतल करती हुईं बह रही हे-यह सब तेरा ग्रेम ही है. ग्रातःकाल के ग्रकाश ने मेरे नयनों को प्लाबित कर दिया हे-मेरे हृदय के लिए यही तेरा पैंदेशा हे. ऊपर से तूने अपना सुख मेरी ओर ऊ्रुकाया है, तेरे नेत्र मेरे नेत्रों पर लगे हैं और मेरे हृदय ने तेरे चरणों को छू लिया है, ६७ हिन्दी-गाताअलि लड़कपन ६० खज्रपार संत्तार के समद्र-तट पर बालक एकत्र होते हैं ऊपर आकाश में कोई चंचलता नहीं हे, श्रोर अग्रस्थिर जल में कोलाहल होरहा हे, बालक अपार संम्नार के तमुद्र-तट पर एकत्र होकर चिल्लाते और नृत्य करते हैं. वे बालू से घर निर्माण करते हैं श्रौर खाली शंखों से खेलते हैं, सूखे हुए पत्तों की नावें बनाते हैं और उन्हें विपुल गभीर चल्िल पर हैँ हँस कर तेराते हैं. वत्त, संचार के समुद्र पर लडके ऐसेही खेलते रहते हैं. वे नहीं जानते क्लि केसे पेरते हैं, केसे जाल डालते हैं. पनडुच्वे मोतियों के लिए डुबकी लगाते हैं, व्यापारी जहाजों पर जा रहे हैं. पर बालक केवल कंकड जमा करते ओर विखरा देते हैं. वे गुप्त रत्नों को नहीं ढूँदते और जाल डालना नहीं जानते... प्रमुद्र हँसी से उम्रडा पडता है और तट की चमक पीतवर्ण की है. जैसे भूलना कुलाते तमय मॉकी लोरियाँ बर्चो को श्रर्थहीन जान पडती हैं वेसेही सागर की मृत्यु-वाहक तरंगे इन बालकों को अर्थहीन मालूम पढती है. पथहीन आकाश में विकराल थ्ॉवी चलती है. सुदूर जल में जहाज नष्ट होते है, मृत्यु सब जगह मेंडरा रही है, किन्तु बालक खेल ही रहे हैं. पारावार जगत के तमुद्र-तट पर ल्लडकों का मैला है. छिन्दी-गीवाअल्ि दम बालछबि का श्रोत ध्रु कया कोई जानता है कि बच्चे की औखों में जो नींद आती हे उसका आयमन कहॉं से होता है ? हॉ, एक जन- श्रति प्रसिद्ध है कि उसका वामस्थान बन की घनी छाया के वीचोबीच एक छुन्दर ग्राम में हे जहाँ जुगनुश्रों का मन्द प्रकाश होता हे और जहाँ दों मनमोहनी सुकुमार कलियाँ लटकती हैं ! चस, इसी रमणीक स्थान से वह बचे की श्राों को चूमने आती है. क्या कोई जानता हैं कि सोते हुए बच्चे के श्रोठों पर जो मुसक्यान प्रगट होती है उसका जन्मस्थान कहां है ? हाँ, एक जनश्रति प्रसिद्ध है कि शिशुचन्द्र की एक नवीन पौत किरण किसी शरद-मेघ की कोर से छू गई और इस प्रकार वहाँ शिशिर-शुचि-प्रधात की स्वप्नातरस्था में मुसक्यान का पहले पहल जन्म हुथ्ना, क्या कोई जानता है कि वह मधुर कोमल लावरण्य जो बच्चे के शंगों में विकसित हो रहा ह इतने दिनों से कहाँ हुपा हुआ था? हाँ, जब माँ किशोरावस्था में थी तब यही मधर कॉमलता ग्रगट रहस्यमय मद ग्रेम के रूप में उसके हद्य में व्याम थी द्‌& हिन्दी-गोताशलि वारूक द्वारा प्रक्तिरहस्य का बोध दर हे पत्त, जब मैं दुम्हारे लिए रंग विरंगे खिल्लोंने लाता हूँ तब मुझे जान पडता हे कि वादल इतने रये विरंगे क्यों हैं, ओर पानी की तरगों भौर मरनों में विविधवर्ण की रेखायें क्यों दिखाई पढती हैं, भौर फूल-पत्तों में इतना वर्ण- बेचित्रय क्‍यों हे. हे वत्स, जब गीत याकर तुम्हें नचाता हूँ तब में यथार्थ रूप से जानता हूँ कि बन की पत्तियों में इतना यायन क्यों होता है, ध्ोर संतार के रासिक श्रोताओ्रों के हृदय में समुद्र को तरयों से अनेक स्व॒रों भर रायों से परिपर्ण गौत क्यों झाते हें. हे वत्त, जब में तुम्हारे लोलुप करों में मिठाई देता हूँ तब में समझ बाता हूँ कि पुष-रूपी प्याले में मधु क्यों है भार फलों में मधुर रस युप्त रीति से क्यों भरा गया हैं है बत्प, जब तुम्हें हँसाने के लिए में तुम्हारा मुह चूमता हैँ, में यह अच्छी तरह समक जाता हूँ कि वह कवि सा खुख है जो आ्राकाश से ग्रातःकालीन ग्रकाश में फ्रवाहित होता है, थ्रौर वह कौन सा भानन्द है जिसे बचत की शीतल मद सुयन्‍्ध समीर मेरे शरीर में उत्पन्न करती है हिल्दी-गीताअलि ७० जीवन विकाश में विधाता का हाथ 5३ तूने मेरा परिचय उन मित्रों से कराया है जिन्हें में नहीं जानता था, तने मुके उन घरों में बेठाया है जो मेरे नहीं थे. त ने दूर को निकट कर दिया है और वियानों को बन्धु बना दिया है. जब मुझे अपने पुरातन आश्रम को छोडना एडता है तो मेरा हृदय वेचेन होजाता है, में यूल जाता हूँ कि नूतन में पुरातन विद्यमान है भौर वहाँ त भी विद्यमान हे मेरे अनन्त जीवन के एकमात्र संगी / इस लोक में या परलोक में जीवन-मरण द्वारा जहाँ कहीं तू मुझे लेजाता हैं वहाँ तू आनन्द के वंधर्नों से अपरिच्ितों के साथ मेरे हृदय को मिला देता हें. जब जीव तुमे जान जाता है, तब उसके लिए कोई वेगाना नहीं रहता, तब उसके लिए सब द्वार खुल जाते हैं. प्रभ, मुके यह वर दो कि में अनेक के बीच में एकल अनुभवानन्द से कभी वंचित न रहेँ, सर श्' है हिन्दी-गीताञ्नलि शक्तियों का दुरुपयोग ६४ निर्जन नदी के तीर घात के बन में मेनें उससे पूछा, “हे कुमारी, दीपक को अंचल से ढक कर तुम कहाँ जा रही' हो? मेरे घर में नितान्त अन्धकार और सुनसान है, कृपया अ्रपना दीपक मुझे दे दो.” उत्तने अपने कृष्ण नेत्रों को क्षण भर श्लेलिए मेरी शोर उठाया ऑर कहा, हिन्दी-गीताअलि ७5 धमकी! इस नदी तट पर इस दीपक को सूर्यास्त के पश्चात जल में वहाने के लिए थआई हैँ.” घाप्त के बन में सई खड़े मैंने बाय से कॉपते हुए दीपए-शिखा को जलवबारा मे व॒था ही बहते देखा सायंकाल का अवेरा होते होते मेने उससे कहा, “हे कुमारी, जबकि तुम्हारे घर के त्त्र दीपक जल रहे हैं, तब इस दीपक को लेकर तुम कहाँ जा रही हो ? मेरे घर में नितान्त श्रन्धकार और सुनसान हैं, कृपया तुम श्रपना दीपक मुके दे दो”? उसने अपने ऊूप्ण नेत्र मेरी श्रोर उठाये अर क्षण भर सशंक्रित खड़ी रही. श्रन्त में उसने कहा “मैं अपने दीपक को श्राकाश की सेंट करूँगी.” मैंने खडे खडे देखा कि शून्य गगन में दीपक कथा ही जल्ल रहा है, चन्द्र विहीन अधरात्रि के अन्यकार में मैंने उससे पूछा “हे कुमारी, तुम इस दीपक को हृदय से लगाकर किस खोज में जारही हो ? मेरे घर में नितान्त अन्धकार थ्ौर सुनसान हैं, ठुम भ्रपना दीपक मुझे देदो?” वह क्षणभर ठहरी भर कुछ सोचने लगी भर अंधेरे में मेरे मुख की और देखने लगी, उतने कहा, “में इस दीपक को दीपावलि में सजाने लाई हूँ.” में खड़ा रहा और ध्यान पूवकत उसके छोटे से दीपक को अन्य दौपकों में व्यर्थ जलते हुए देखा. ब ७३ हिन्दी-गीताअलि भक्‍त और भगवान की एकता दप हे भेरे ईश्वर, मेरे जीवन के लवालब भरें पात्र ते तू कौनसा दिव्य रस पान करना चाहता है ? हे मेरे कवि, मेरी श्रात्रों से श्रपनी पृष्टि को देखने आऔर मेरे कानों के द्वार पर खड़े होकर श्रपने ही अविनाशी मधुर गान को चुपचाप छुनने में तुके क्या भानन्द श्राता है ? 9७.4 तेरे जगत से ही मेरे मन में शब्द-रचना होती है श्रौर तेरे भानन्द से उन में गान उत्पन्र होता हैं | तू श्रेमक्श होकर अपने को झ॒मे प्रदान कर देता हैं और फिर मुझ मे अपने ही पू्रानिन्‍्द का अनुभव करता है. ह्‌ए+ रा हिन्दी प्‌ “मोतास्लि अन्तिम सेट द्द्‌ हि. घृह जो सन्ध्या के आभास में मेरी आत्मा के हक." अन्तरतम ग्देश में विद्यमान रही, वह जिसने ग्रभात के ख्पू हिन्दी-गीताअलि श्रालोक में अपना घूँघट कर्मी नहीं खोला, हे मेरे ईश्वर, उसे में अयने अन्तिम गीत के द्वारा अन्त में तेरी मेंट करूँगा. वाणी ने उसे वश करना चाहा, पर कर व सकी. लोगों ने उत्सुकता और उत्ताह से उसे समकाने और मनाने का यत्न किया, पर कतकार्य्य न हुए. में उसे अपने अन्तःकरण में धारण कर के देश विदेश फिरा, श्रौर वही मेरे जीवन की वृद्धि और क्षय का केन्द्र रही है. मेरे विचारों और करमों, मेरी निद्राओं और स्वप्नों के उपर उसने राज्य किया है, एर वह अकेली और अलग रही है* बहुतों ने मेरे द्वार को खटखटाया, उसके बारे में पद्तॉंछ की श्र निराश होकर चले गये. इस संसार में ऐसा कोई नहीं है जिसने उत्तका साज्ञात्‌ दर्शन किया हो. वह तेरी स्त्रीकृति की प्रतीज्ञा करती हुई एकान्त में बेठी रही, हिन्दी-गीताअलि झंद्‌ इहलोक ओर ब्रह्मलोक ६७ तूही आकाश है आर तूही नीड है. हे सुन्दर, यह तेरा ही श्रेम है जो मेरी थ्रात्मा को नाना वर्णों, वाना गीतों और नाना गनन्‍्धों से नींड में वेष्टित किये हुये है. यहों ऊपा अपने दाहने हाथ में स्र्ण की थाली में सोन्दर्य की माला लेकर चुपचाप घरा के ललाट को शान्ति- पूर्वक अलंकृत करने के लिए श्राती है. पश्चिमी शान्त समुद्र से शीतल शान्तिवारि को स्वर्ग- कारी में भरकर चिहृहीन मांगों से होती हुई घेनु-शून्य मेंदान में सन्ध्या यहाँ आ विराजती हे, परन्तु उस स्थान में, जहां अनन्त आकाश आत्मा की उडान के लिए फैला हुआ है, निर्मल उज्जल भास्त का राज्य है. वहों न दिन हे, न रात है, न रूप है औरं न रथ है, नहीं, वहां एक शब्द भी नहीं है. 5 हिन्दी-मीताअलि हि सघ द्प्म तेरी रविकिस्ण अपनी शजाओं को वढ़ाए हुए रस प्‌थ्वी पर भाती है और दिन भर मेरे द्वार पर हैंते लिए खड़ी रहती है कि मेरे श्राँसुओं, आहों और गीतों से बने हुए मे्घों को तेरे चरणों में लेजाए, सानुराग भआाननन्‍्द से तूने अपने ताराजटित वच्षस्थल के श्रासपासघुँधले वादलों के आवरण को लपेट दिया हे, तू उन्हें असंख्य रूपों और तहाँ में बदलता है और सदा प्रिवर्तनशील रेंगों से रेगता हैं हे निरंजन भर शान्त, वे बडे हलके, चपल, कोमल, कारुणिक और श्यामल हैं; इसीलिए तू उन्हें इतना प्यार करता है और इसीलिए तो वे तेरे तेजस्री उज्जल अकाश को भ्रपनी करुणामयी छीया से ढक जेते हैं. हिन्दी-गीताअलि पाल विश्वव्यापी जीवन ६& ज्ञीवन की जो धारा मेरी न्तों में रात दिन वहती है, वही सारे विश्व में बेण से बह रही है ओर ताल चछुर के प्ताथ नृत्य कर रही है. यह वही जीवन हे जो पृथ्वी पर असंख्य तृरणणों के रूप में सहर्ष प्रकट हुआ करता है श्र फूल पत्तियों की तरंयों में आविर्भूत होता हे. यह वही जीवन हैं जो जीवन-स॒त्यु रूपी समुद्र के ज्वार थाट के पालने में हिलोरें मारता है. में अनुभव करता हूँ कि सेरे अंग इस विश्वव्यापी जीवन के स्पर्श से रमणीक होते हैं और सुझके उच्च युगयुगा- न्तखर्ती जीवन-स्पन्दन का भ्रभिमान हे जो इस समय भी मेरे रक्त में नृत्य कर रहा हे. ७६ हिन्दी-गीताञलि विश्वव्यापी आनन्द हि 6 । क्या इत वाद्य के भानन्द से भानन्दित होना ऑर इप भयंक्षर प्रमोद के मेंवर में हिलोरें मारना और समाजाना तेरी शक्ति के परे है ? सब चौजें वेग से बढती जा रही हैं, वे ठहरती नहीं, वे पीछे नहीं देखती; कोई शक्ति उन्हें थाम नहीं सकती, वे थागे बढती ही जाती हैं. उस चंचल और वेगप्रान वाद्य के साथ साथ ऋतुयें नृत्य करती हुई थाती हैं श्ौर चली जाती हैं. विविध राग रंग और यन्धों के अनन्त करने उस परिपूर्ण थानन्द में आकर गिरते हैं जो प्रति चरण फैलता भर नष्ट होता है. हिन्दी-गोताओलि कह साया ७१ सेरी माया ऐसी हे कि में अपने पर अभिमान करता हूँ और इस अमिमान को सब भोंर लिये फिरता हूँ, और सर हिन्दी-गीताञलि इस प्रकार तेरे आगात पर रंगविरंगी छाया डालता रहता हूँ तू पहले अपने ही श्रंश करता हे श्र फ़िर अपनी विच्छिन भात्मा को अ्रसंस्य नामों से पुकारता हे, तेरा विच्छिव भात्मा मेरे शरीर के रूप में प्रकट हुआ है. तेरे मर्मस्पर्शी ग्रीतों की प्रतिध्वनि विविध प्रकार के श्रतुओं, मुसक्यानों, थ्यों ओर आशाश्रों के रूप में सारे आकाश में हो रही हे. लहरें उपर उठती हैं भौर फ़िर गिरती हैं. सप्न आते हैं भर मिट जाते हैं. इस सष्टि रूपी यवनिका पर जिसकी रचना तूने की है, रात्रि द्विसत रूपी लेखनी से श्रप्तंस्य चित्र चित्रित किये गये हैं. इत्त के पीछे तेरा चिंहातलन बॉकी रेखाओं के विचित्र रहस्यों से बनाया गया है. उस में कोई बन्ध्या सीधी रेखा नहीं हैं. मेरी भौर तेरी महान प्रदर्शनी से सारा आकाश व्याप्त है. मेरे और तेरे सुर से सारा श्राकाशमण्डल गज रहा है. युगों के युग मेरी और तेरी श्रॉखमिचानी के खेल मे बीतते चले जाते हैं. हिन्दी-गीताओलि ले यह वही है ञर्‌ चही तो मेरा अन्तरात्मा है जो मेरे जीवात्मा को अपने गभीर अदृश्य स्पशों से जागृत करता है, यह वही है जो इन नेत्रों पर अपना जादू करता हे और मेरे हृदय रूपी ब्रीणा के तंतुओं पर सुख दुख के विविध सुरों को आनन्द से बजाता है. यह वही है जो इत माया के जाल को सुनहले और रुपहले, हरे आर नीले ज्ञणिक्र रंगों में बुतता है और उन जालों में से अपने चरणों को बाहर निकलने देता हे जिन के स्पर्श मात्र से में अपने आपको भूल जाता हूँ दिन आते है और युग के युग बीतते जाते हैं, यह केवल वही है जो मेरे हृदय को नाना नामों, नाना रूपों और हपे शोक के नाना उद्देयों में घुमाता हे, मई हिन्दी-गीता झलि बन्धन में मुक्ति छ३ त्याग मेरे लिए मुक्ति नहीं है. घके तो आनन्द के सहसों वंधरनों ये मुक्ति का रव आता है, तू मेरे लिए सदा नाना रंगों और गन्धों के अ्रमत की वर्षा किया करता है श्र मेरे इस मिट्ठी के पात्र को लवालब गर देता है. मेरा संप्तार अपने सकदों दीफों को तेरी ज्योति से प्रण्य- लित करेया और तेरे मन्दिर की वेदी पर उन्हें चढायेगा, नहीं, में श्रपनी इन्द्रियों के द्वार कभी बन्द न करूँगा, शब्द, स्पर्श, रूप, रत, गंध का छुख तेरे परमाननन्‍्द को उत्पत् करेया. हां, मेरे सब अम शोर संशय तेरे आनन्द की ज्योति में थस्म होजायेंगे और सेरी सब बासनाएँ प्रेम रूपी फलों में परिणत दो जाएँगी, हिन्दी-गीताअलि छ प्रस्थान का समय हि | दिन छिप गया हे, पृथ्वी पर भन्धकार छाने लगा है. यह समय है कि अपनी गायर भरने के लिए में नदी को जारऊँ- जल के गंभीर गान से संध्या समीर श्राकुल है, भरे, वह मुझे योघूलि में प्रवेश करने के लिए बाहर ढुलाती है. जन-हीन पथ में कोई आता जाता नहीं हे, हवा चल रही हे आर तरंगे हिलोरें मार रही हें. मुके नहीं मालूम कि में लौट कर घर ध्ार्जेगा, या नहीं ? में नहीं जानता कि वहा क़िप्त से मेंट होजाय ? वहाँ घाट पर छोटी ती नौका में वेठा -हुआ वह अ्रपरिचित जन अपनी वीणा बजा रहा है, म्प हिन्दी-मीताशलि विश्वव्यापी पूजा ] हे श्र, हम जीत्रों को तू ने जो कुछ दिया हे वह हमारी सब भावश्यक्रताओों को पूरा करता है, और फिर तेरे पास ज्यों का त्वों लॉट जाता है. नदी भ्रपना नित्य का काम करती है श्र खेतों थ्रोर बस्तियों में होकर वेग से बहती चली जाती है, तथापि उसप्त की निरन्तर घारा तेरे चरणों की भोर ग्रक्ञालन के लिए घूम जाती है. फल अपने सौरम से वायु को सुगंधित करते हैं तथापि उनकी धन्तिम सेवा यही है कि अपने को तेरे चरणों यें अर्पण करें, तेरी इस पूजा से संप्तार कृछ दरिद्री नहीं होता, कवि के शब्दों का श्र्थ लोग अपनी रुचि के अश्रचुसार लगाते हैं किन्तु उनके वास्तविक अर्थ का लक्ष तू ही है. हिन्दी-मीतार्श्ञाक्ि मद इंश्वर के सन्मुख रहने की इच्छा जद हे मेरे जीवन स्वामी. क्या दिन ग्रति दिन मैं तेरे सन्मुख खड़ा रह सकेँगा ? हे भुवनेश्वर, क्या कर जोड कर में तेरे सन्‍्मुख खड़ा रहेगा ? क्या तेरे महाव आकाश के नीचे निर्जेन नीख अवस्था च्ध 3 में नम्न हृदय से में तेरे सन्मुख खड़ा रहेगा ? क्या तेरे इस कर्मग्रस्त संधार में जो परिश्रम और संग्राम के कोलाहल से झाकुल है, दोड-धूप में लगे हुए लोयों के बीच में रहते हुए में तेरे सन्‍्मुख खडा रह सकूँगा ? हे राजाधिशज, जब इस संसार में मेरा कार्य समाप्त हो जायगा, तो क्या में एकान्त थौर नीरब दशा में तेरे सन्‍्मुख खडा रह सकूँगा / हे हिन्दी-गीताश्नत्वि मनुष्य की सेवा ही ईश्वर की सेवा है उज में त॒के अपना ईश्वर मानता हैं भौर इसलिए तुक से दूर खड़ा रहता हूँ. में तुके अपना नहीं समकता और इस- लिए तेरे विकटतर श्राने का साहस नहीं करता. में तुझे अपना पिता मानता हूँ और तेरे चरणों को प्रणाम करता हूँ, किन्तु में तुके अपना मित्र नहीं समकता ओर इसलिए तेरा हाथ नहीं एकडता. ४ जहाँ तू नीचे उतर कर धाता है और अपने आप को मेरा बतलाता है, वहाँ तुके अपने हृदय से लगाने और अपना साथी मानने के लिए में खड़ा नहीं होता. भाहयों में केवल तुकी को में अपना भाई समभता हूँ. में उनकी प्रवा नहीं करता, में अपनी कमाई में उनको सम्मिलित नहीं करता श्र इस अकार तुमे भी अपने सर्वस्त में हिस्सा नहीं देता. में सुख दुख में उनका साथ नहीं देता भौर इप्त प्रकार तेरे पास भी नहीं खडा होता. मेँ [दूसरों के लिए] अपना जीवन देने से हिच्रकियाता हूँ और इस अकार जीवन महा- झ्ागर में गोता नहीं लगाता. हिन्दी-गीताअेलि 62 खोया हुआ तारा जप जब विधाता ने सृष्टि-रचना का कार्य समाप्त किया, तब नील श्राकाश में स्तब तारे चमकते हुए निकल श्राये और म£ हिन्दी-गीताडझलि सब देवता नत्रीन सृष्टि पर विचार करने के लिए देव-सभा सें झा विराजे ऑर इस प्रकार यान करने लगे, “श्रह्म, क्रसा शुद्ध श्रानन्‍्द है / श्रहा, केसी पूर्ण छवि हे /?? उत्त समय सभा से सहसा कोई बोल उठा, “रे ज्योतिमाला में एक स्थान खाली है, जान पड़ता है कि एक तारा स्रो यया हे.?? उनकी बीणा का सुनहरा तार टूट गया, याना बन्द होगया भर वे सब भयभीत होकर चिल्ला उठे, “रे हॉ, यह खोया हुआ तारा सब से श्रेष्ठ था और उसी से श्राकाश मंडल को शोभा थीं» उस दिन से सारा जयत उत्त तारे को ढूँढ रहा है. रात दिन वेचेनी रहती हे और श्रांखें बन्द नहीं होती, सब कोई परस्पर कहते हैं कि उत्तके खो जाने से संत्तार का एक आनन्द खोगया, घोर गंभीर रात्रि की नीखता में तारे हँसते भौर भ्राषत्त में कहते है-“स्तव्ध तारादल में उत्तकी खोज करना कथा है, पत्र कहीं परिपूर्णता विराजमान है.” हिन्दी-गीताओलि 6० अभिलषित वेदना ७& यदि इस जीवन में तेरा दर्शन करना मेरे भाग्य में नहीं है, तो ऐ मेरे प्रभु, में सदा यह अनुभव करता रहँ और एक क्षण भर के लिए भी न भूलूँ कि मुके तेरा दर्शन &१ हिन्दी-भीताशलि प्राप्त नहीं हथा, और सोने जायते सदा ही इस शोक की वंदना मर मन में बनी रह शोर जेसे जेसे इस संप्ाार की भरी हाट में मरे दिन चीतते जायें श्रौर नित्य की श्राय से मेरे हाथ भरते जायें तेंसे तंसे में मबदा यह अनुभव करूँ कि युके कोश लाभ नहीं हुआ-में यह कभी एक क्षण भर के लिए गी न भूले कि मुके तेरा दर्शन प्राप्त नहीं हुआ, थोर सोते जागते सदा ही इस शोक की वेदना मेरे सन में बनी रहे. जब थक कर हॉफता हा सें रास्ते के किनारे बेठ जाऊँ और घूल पर विद्ोने विद्या दूँ तो में सदा यह अनुभव करूँ कि थरगी दीध यात्रा मेरे सामने हं--मँ यह कसी एक कण के लिए मी न भूलूँ, और सोते जायते सदा ही इस शोक की वेदना मेरे सन में बनी रहे. जब मेरा घर विविध अलंकारों से चुस्तज्जित किया जाय, उसमें खूब गाना बजाना और हँसी खुशी हो, तब में बरा- वर यह अनुभव करता रहूँ कि मैंने तुमे अपने घर में निमंत्रित नहीं किया हे-में यह एक कण मर के लिए भी न मूल थार सोते जायते सदा ही इस शोक की चेदना मेरे सन में बनी रहे. हिन्दी-गीता श्ञलि २ में लीन होने की आकाचा कू0० है नित्य तेजोमय सूर्य, में शरद-मेघ के उत्त बचे बचाये टुकड़े के समान हैँ जो आकाश में व्यर्थ भटकता फिरता है. अभी तेरे से ने उसे पिला कर अपने प्रकाश के साथ तनन्‍्मय नहीं किया है, इस अकार तुम से विछुद हुआ में महाँनों और वर्षों घड़ियोँ गरिन गिन कर काट रहा हूँ. यदि यही तरी इच्छा है, और यदि यहाँ तेरा खेल हैं, तो व मेरे इस तुच्छ च्षणमंगुर अस्तिल को विविध वर्णों से रंग दे, सोने से चुनहरा कर दे, चंचल वायु पर उसे छोड दे और विविध श्राश्वव्यजनक रूपों में उसे फैलने दे, ऑर जब रात्रि को तू यह खेल समाप्त करना चाहेगा में अपर में शुश्र प्रभात की मुसक्यान में, निर्यल पवित्रता की शीतलता में परिणत होकर लोप हां जाऊँगा. €रे हहन्दी-गीताशञ्नलि समय की विचित्र गाते प्‌ में नेनट्ट किये समय पर बहुधा शोक किया है. किन्तु, हे मेरे प्रभु, समय कभी व्यर्थ नष्ट नहीं हुआ क्योंकि मेरे जीवन के ग्त्येक क्षण का नियन्ता तू है. तब पदार्थों के भीतर रहकर तू बीर्जों में श्रंकुर, कल्ियों में फूल और फूलों में फल उत्तर करता है. में थक कर और अपने आलतसी विलोने पर लेट कर यह सोच रहा था कि सब काम समाप्त हो गया, किन्तु जब मैं ग्रातःकाल उठा तो क्या देखता हूँ कि बाटिका पुष्षों के अदभुत दृश्यों से भरी पड़ी है. हिन्दी-गीताअलि ८४ [आप 5२ असो ससय ह परे ह्ले प्रभ ! तेरे हाथ में ग्रवन्‍्त समय है, तेरे ऋ्षर्णों की कोई गणना नहीं कर मकता. रात दिन आते श्रौर चले जाते हैं, युग के युग पुणषपों के तुल्य खिलते और मुरकाते हे. तू जानता दे कि प्रतीक्षा केसे करना चाहिए, एक नन्‍हें से बनेले फूल को पूर्णता तक पहुँचाने के लिए एक एक करके शताव्दियों बराबर भाती हैं. हमारे पास वृथा नाश करने के लिए तनिक भी समय नहीं हे और इस लिए हमें अपने अवसरों श्रौर पफलताशों के लिए छीना कप्टी करनी चाहिए. हम इतने दरिद्री हैं कि विनम्तब्र नहीं कर सकते, पर भगड़ा करने वालों के साथ कंगडा करने में ही मेरा समय निकल जाता है और इस लिए तेरी बेदी अन्त तक बिल्कुल सूनी पडी रह जाती है. दिन समाप्त होने पर में यह डरता हुआ कपटता हूँ कि कहीं तेरा द्वार बन्द न हो जाय, पर मुझे मालूम होता हे कि अभी समय बाकी हे. ट्‌रे हिन्दी-गीताश्ञलि अनोखा हार दे मो, मैं तेरे कशठ के लिए शोक के श्रॉसुओं की मुक्ता-हार बनाऊँगा. तारों ने तेरे चरणों को अलक्त करने के लिए ज्योति के कंकण बनाये हैं पर मेरा हार तेरे वच्तस्थल पर शोभाव- मान होगा. धन और यश ठुम ते जात होते हैं और इनका देना ने देना तेरे हाथ में है... रठ यह शोक मेरी निज की बरस्दु हैँ और जब में उसे थ्रपनी भेंट स्वरूप तेरे आर्पण करता हूँ तो तू मुके अपना अताद प्रदान करती है. हिन्दी-गीताऊइलि &६ वियोग प्छ यूह वियोग की ही पीडा है जो सारे भुवन में फैली हुई है और अनन्त आकाशमण्डल में अगणित रूपों को उत्पन्न कर रही हे. यह वियोग का ही शोक है कि तारागण एक दूसरे की और रात भर टकटकी लगाये रहते हैं और सावन के बरसाती अन्धकार में खडखडाती पत्तियों से वीणा की ध्वनि निकलती है यह वियोग की ही सर्वव्यापिनी वेदना हे जो मानवी ग्रहों में ग्रेम और वातना, शोक और आनन्द में घनीसूत होती है और जो मुक कवत्रि के हृदय से कर मकर कर गीतों के रूप में प्रवाहित होती है. कि हिन्दी-गीवाशलि हर हि योद्धाओं का आवागमन मे जित समय योदागण अभुग्रह से आये थे उस समय उन्होंने अपना विपुल बल कहाँ छिपा दिया था ? उनके कवच और वस्त्र कहों थे ? वे दीन और अ्रव्नहाय दिखाई पडते थे और चारों भोर से बाणों की वर्षा उन पर होती थी. जिस समय थोद्धागण अ्रभुग्र॒ृह को लॉटे तब उन्होंने अपने चिपुल बल को कहाँ छिपा दिया था ? उन्होंने श्रपनी तलवार रख दी थी श्र धनुष-बाण डाल दिया था, उनके मस्तक पर शान्ति विराजमान थी थौर उन्होंने श्रपने जीवन के फलों को भ्रपने पीछे छोड दिया था--जिस दिन वे अपने ग्भुम्ह को फिर वापत गये थे. हिन्दी-गीता श्षत्ति यमसागसन न्द तेरा सेवक, यम, थ्ाज मेरे द्वार पर पधारा है. वह अ्ज्ञात-सागर को पार करके तेरा सन्देश मेरे द्वार पर लाया है. रात अंधेरी है शोर मेरा हृदय भयातुर हो रहा है. तोभी में हाथ में दीपक लेकर अपने द्वार को खोल्ूँगा श्रोर बन्दना पूर्वक उसका स्रागत करूँगा, क्योंकि वह तेरा दूत है और मेरे द्वार पर खडा है. हाथ जोड कर अश्वुजल से में उसकी पूजा करूँगा और अपने हृदय के रत्व को उसके चरणों में अर्पण कर दूँगा, वह अपना कार्य्य पूरा करके लौट जायगा और मेरे प्रभात पर एक अधेरी छाया छोड जायगा, और मेरे शृन्य- ग्रह में केवल मेरी अनाश्रित आत्मा तेरी अन्तिम भेंट के लिए शेष रह जायगी <्& हिन्दी-गीताझलि नित्यता की प्राप्ति म््स अत्यन्त निराश होकर में जाता हूँ भर उसे अपने घर के सत्र कोनों में ढेँढता हूँ पर वह मु॒के नहीं मिलता, गेरा घर छोटा है शोर जो कुछ वहाँ से एक बार जाता रहा वह फिर वहाँ नहीं ग्राप्त हो सकता, परन्तु, हे प्रभु, तेरे धवन का आदि अन्त नहीं हे श्रौर उसे खोजते खोजते में तेरे द्वार पर आ पहुँचा हूँ. में तेरे सन्ध्यागयन के सुनहरे शाययाने के नीचे खड़ा हूँ और अपने उत्सुक नयनों को तेरे मुखारबिन्द को भोर उठाता हूँ. में नित्यता के तट तक आगया हूँ. जहाँ से कोई वरतु लोप नहीं हो सकती; जहाँ से कोई आशा, कोई आनन्द था अ्रश्नमरी भ्राँखों से देखे हुए किस्ती सुख का हृश्य, मिट नहीं सकता भरे, मेरे शनन्‍्य जीवन को उस अनन्त सायर में डुबकी दे और परिपर्णता की श्रगाघ यहराईं में उसे डुबो दे. ग॒के _ एक बार सारे विश्व के बीच में खोये हुए कोमल स्पर्श को अनुभव करने दे, हिन्दी-गीताझेलि जज जीणे मन्दिर का देवता ब्य् ह्ले जीर्ण मन्दिर के देवता / बींणा के टूटे तार श्रव तेरा गुणगान नहीं करते. श्रत्र सन्ध्या समय घरटे १०१ हिन्दी-गीताअलि तेरी आरती की घोषणा नहीं देते. तेरे आसपास की वायु शानन्‍्त्र श्रोर स्थिर हे वसन्त को मन्द वायु रह रह कर तेरे निर्जन भवन सें उन फूलों के समाचार लाती है जो पूजा में अब दुके नहीं चढाए जाते. तेरा पृराना पुजारी उत्त अ्लाद की खोज में मटक रहा है जो अ्रभी तक उसे प्राप्त नहीं हुआ. सन्ध्या समय जन्र घूल, अकाश और अन्धकार तीनों मिलते है तब वह थका मादा और भूखा जी मन्दिर को वापस थाता है. है जीणी मन्दिर के देवता, उत्सवों के कितने ही दिन तेरे पाल होकर चुपचाप निकल जाते है, एजा की बहुत सी रातें बीत जाती हैं और तेरे समीप एक दिया भी नहीं जलता. प्रवीण शिल्पी अनेकों नवीन प्रतिमाएँ बनाते हैं भौर जब उनका समय आ जाता है तो वे विस्मृति को पत्ित्र वारा में विसर्जन कर दी जाती है. किन्तु, भ्रकेला जीण मन्दिर का देवता, निरन्तर उपेक्षा के कारण, पूजा से बंचित रहता है. हिन्दी-मीताजेलि श्ण्य मोनब्ती वेरागी प्& जऋूष न तो चिल्लाऊँ और न जोर से युकारूँ; यह मेरे स्वामी की इच्छा हे. अब से में बहुत धीरे घीरे ही निवेदन करूँगा और मेरे हृदय का भाषण गीतों की गुनगुनाहट के रूप में हुआ करेगा. लोग राजा को हाट को जा रहे हैं. सब खरीदने वेचने वाले वहाँ विद्यमान हैं. पर मेंने काम काज के घमा- सान में दोपहर को वेला-असमय में ही-सब कुछ त्याय दिया हे, तत्र तो इत्त अ्रतमय में ही मेरे उद्यान में फूलों को निकलने दो और मध्याह काल में ममाखियों को मुदुगुंजार र स्‍्ने दो हे भले बुरे के द्न्द में मैंने अपना बहुत सा समय खर्च किया, परन्तु अब मेरे खाली दिनों के साथी की इच्छा भेरे हेदय को श्रपनी श्रोर खींच लेने की है, / 5. कई मुझे नहीं मालूम के में इस प्रकार यक्रायक किस निः्प्रयोजन परिणाम के लिए तुाया जाता हूँ ? जाओ. १०३ हिन्दी-जगिताअलि मृत्यु का आतिथ्य &9 जब गुल तेरे द्वार को खटसटायेगी तब तू उसे क्या भेंट करेगा £ प्यारे, में अपने अतिथि के श्राये अपने जीवन को भरपूर पात्र रख दूँगा; में उसे खाली हाथ कभी न जाने दूँगा, जब अनन्त॒काल में मत्यु मेरे द्वार को खटखटायेगी तो में हेमनत के सब दिवसों, वसंत की सब रात्रियाँ के कल फूल आर अपने कार्य-अत्त जीवन की सब उपार्लित और एकत्रित सम्पच्ि को उसके आगे रख दूँगा. हिन्दी-गीता श्षल्लि ६330 मृत्यु की स्नेहमयी प्रतीक्षा €&१्‌ सूल, ऐ मेरी मृत्यु, मेरे जीवन की श्रन्तिम पूर्णता, आ री, तू आ और सेरे कानों को मधुर सम्बाद सुना, मैंने तेरे आगमन की प्रतीक्षा की हैं और तेरे लिए ही मैंने जीवन के सत्र सुख दुख सहे हैं. में जो कुछ हूँ, मेरे पास्त जो कुछ हे, में जो कुछ आशा करता हूँ और मेरा श्रेम ये सब बडी ग्भीर रीति से मदा तेरी ओर प्रवाहित होते रहे हैं. मेरे ऊपर तेरे नयनों का अन्तिम कटाक्ष पड॒ते ही मेरा जीवन सदा के लिए तेरा हो जायगा. पुष्प पिरो लिये गये और वर [भगवान ] के लिए माला तेयार है. विवाह के [ मृत्यु ] पश्चात्‌ बधू (भक्त] अपने घर से विदा होगी और अपने स्वामी से शुन्य-रात्रि में अकेली मिलेगी, १०४ हिन्दी-गीवाञ्जलि स॒त्यु के उस पार &२ मं जानता हूँ कि वह दिन आयेगा जब मुझे यह संसार फिर देखने को न मिल्लेगा श्रोर में चुपचाप यहाँ से छुट्टी दगा और मेरे नेत्रों पर अन्तिम परदा पड़ जायगा, तो भी रात्रि को तारे जगभयायेंगे अ्रभात का उदय होगा श्रौर घड़ियों. सायर-तरगों की भाँति छुख हुख को उत्तन्न करती हुई बीवती जायेगी. जब में श्रपने जीवन की घडियों के इस अन्त पर विचार करता हूँ तो ज्ञणिकि काल की सीमा टूट जाती है और में समत्यु के प्रकाश से तेरे उस लोक को देखता हूँ जहाँ अनन्त रतन विखरे पडे हैं, उसप्तका निक्षप्ट से निक्षप्ट स्थान भी दुर्लभ है और उत्तका नीच से नीच जीवन भी दुष्प्राप्य है. जिन वस्तुश्रों की इच्छा में वथा ही करता रहा आर जो सुके ग्राप्त होगईं अब उन सब को जाने दो. बस, श्रत्र उन वस्तुओ पर मेरा प्रकृति अभ्रल होने दो जिनका अनादर और अपमान में श्रव तक करता रहा हूँ, हिन्दी-गीताअलि हक संसार से बिदा &३ मुझे छुट्टी मिल गईं हैं, ऐ मेरे भाइयों / मु बिदा करो. | में तुम सब को ग्रणाम करता हैँ और खाना होता हैँ. ० यह लो मेरे द्वार की कुंजियों; में अपने घर के स्व अधिकारों को तिलांजलि देता हूँ. में तुम से केवल भ्रन्तिम मधुर वनों की ग्रार्थना करता हूँ. हम बहुत सम्रय तक पडोसी होकर रहे, पर मेने जितना पाया उतना दे न ध_का, अब दिन निकला हैं और वह दीपक बुक गया जिससे मेरे श्रंधरे कोने में प्रकाश होता था. सेरा बुलागा आया हे और से यात्रा के लिए तेयार हूँ. ६०७ हिन्दी-गीताअलि परलोक यात्रा &8 ऐ मेरे मित्रो, अब मेरे जाने की वेला है. तुम सब मेरे लिए शुभ कामना करो. आकाश उषा से रक्तबर्ण हो है और मेरा मार्ग छुहावना हैं यह न पूछो कि वहाँ ले जाने के लिए मेरे पाप्त क्या हे. में अपनी यात्रा पर खाली हाथ और आशापएूर्ण हृदय के ताथ जाता हूँ. में विवाह की माला पहनूँगा. परयिक्रों के से केरे भगवे वस्त्र नहीं है... यद्षपि मार्य यें संकट है पर मेरे सन में कोई भय नहीं है. मेरी यात्रा के समाप्त होने पर संध्या-तारा निकलेगा और सा्यकराल की मधुर रायनियों राजद्वार पर बजाई जायेंगी . हिन्दी-गीताओलि श्ध्प जीवन मरण की समता हए मुझे उस्त समय की कोई ख़बर नहीं जब मेंने पहले पहल इस जीवन में प्रवेश किया था. वह कौन सी शक्ति थी जिसने श्रर्धरात्रि में अरण्य- कली की भांति इस विपुल्र रहस्य में मुके विकसित किया था. जब ग्रातःकाल मेंने प्रकाश को देखा तो मुझे उसी कण मालूम हुआ कि में इस जगत में कोई अपरिचित जन नहीं हूँ और उस नाम रूप रहित अज्जलेय शक्ति ने मेरी माँ का रूप धारण कर मुझे अपनी गोद में ले लिया है, इसी ग्रकार म॒त्यु के समय वही अन्नात शक्ति ऐसे प्रगट होगी कि मानो उसका और मेरा परिचय सदा से था. मुके अपना जीवन प्यारा है इस लिए मुझे मृत्यु भी प्यारी लगेगी. जब माँ बच्चे को दाहिने स्तन से छुडाती हे तो वह चीखता है पर दूसरे क्षण में ही जब वह उसे बायों स्तन देती है तो उसे आश्वाप्तन हीता है. २०६ (हन्दी-गीदवाशलि मेरे अन्तिम वचन &६ ज्ञूत्र में यहाँ से विदा होऊँ तब मेरे अन्तित्र वचन ये हों कि, “मैंने जो कुछ देखा हैं, उत्ततें बढ़ कर और कुछ नहीं हो सकता.” <बमैने इस कमल के (त्रह्माएड ) गुप्त मछु का आखा- दन किया है जो अकाश-सागर पर फैला हुआ है और इस ब्रकार मेरा जीवन धन्‍य ह-र्य मेरे अन्तिम वचन हाँ ०“असंख्य रूपों के इस क्रीडा-क्षेत्र में में अपना खेल खेल चुका हूँ ग्रौर यहाँ मुझे उत्तके दशन होगये जो रूप रहित है.” “मेरा सारा शरीर और अंग उसके स्पर्श से पुलकित हो गये हैं जो स्पर्श से परे हैं; भर यदि मेरा श्रन्त यहाँ ही होना है तो भले ही हो”?--वे मेरे श्रन्तिम वचन हो. हिन्दी-गीताञझलि ६९० प्रक्ृतिप्रभु का बोध &७ जप में तेरे साथ खेलता था तो मैंने कभी नहीं प्छ्ला कि तू कॉन है, मुझ में तबन तो संकोच था और न भय, मेरा जीवन अचंड क्रीडामय था, अमात समय तू सुके सखा की सॉति निद्रा से ज्ठाता था ऑर झुके खेत खेत दौडाता फिरता था, उन दिलों में उन गीतों का भर्थ सममने की कोई परवा नहीं करता था जिनको तू मुझे गाकर सुनाता था, व्त येरा कंठ सर सें स्वर सिलाने लगता था और मेरा ढंदव सर के चढ़ाव उतार पर नाचने लगता था. अब जब खेल का समय बीत गया है तो सहत्ता एक विचित्र दृश्य येरे चायने आता है, यह विश्व अपने सकल चौरव तारादल के साथ तेरे पद-कमल्ों में अपने नयन कृकाये चकित और निस्तच्व खड़ा है, १११ (हेन्दी-गीदाश्रलि काल बली से कोई न जीता द् में त॒के तेरी जीत की सेटों और अपनी हार हे हारों से अलंकृत करूँगा, श्रपराजित रह कर भाग निकलना मेरी सामर्थ्य से सदा बाहर है मुझे निश्चय है कि सेरा गर्व सर्व होगा, मेरे जीवन के वंधन घोर व्यथा में टूट जायेंगे भर गेरा शून्य हृदय खोखले बॉस की तरह या गा कर सिसलकियाँ लेगा और पत्थर पत्तीज कर ऑँपू वहायेंगे, मे निश्चय जानता हूँ कि कमल के शतदल सदा बंद न रहेंगे और उत्तके मधु का ज॒प्त स्थाच अगट हो जायगा, नीलाकाश से एक शंख मेरी ओर देखेगी शोर इशारे से मुके चुपचाप अपनी ओर बुलायेगी, मेरे लिए कुछ शेष न रहेगा और तेरे चरण-तल् में मुझे निरी मृत्यु ही मिलेगी. हिन्दी-गीताश्षकछि श्श्र हारे के हाथ निवाह । && जीगन रूपी नौका की पतवार को छोडते समय, में जानता हूँ कि, तू इसे अपने हाथ में ले लेगा, और जो कुछ किये जाने को है. वह तुरन्त ही हो जायथा. भव दोड्यूप करना निप्कल है. पे मन, अब अपने हाथ को खींच ले और अपनी हार पाप सह ले भौर जिस स्थिति में तू हे उसी में बैठे हक अपना सोभार्य सममम, हक | छ) चु कि को सतत हवा के जरा जरा से कॉर्कों से मेरे ये दीपक इुक जाते आर श्न के वारस्वार जलाने के अयत्न में ये झौर सच यूल जाता हू परन्तु इस वार में वुड्धिमत्ता से काम रूँगा और अपने झागिन में आसन वचिछा कर अँंधरे में ग्रतीत्षा करूँगा. ऐे शत कट यनकर .ग, भू / जब कमी देसी इच्छा हो तव चुपके से आ जाना भर यहीं पर बट जाना. ११३ हिन्दी-गीताअलि ७७७७७ ाााभाणाकायांध जाम अल म परबह्म में लय १०० मैं आकारों के सम॒द्र मे इल आशा से यहरी डुबकी यारता हूँ कि विराकार का पूर्ण मोती मेरे हाथ थ्रा जाय. अब में इस काल-जजीरित नोका में बैठ कर घार घाट नहीं फिरूँगा,.. अब पेंह पुगने दिन बीत गए जब लहरों पर थपेडें खाना ही मेरा खेल था. ग्रव में उत्सुक हूँ कि मर कर अमरल में लीन हो जाऊं. में श्रपनी जीवन रूपी बीणा को वहाँ ले जाऊँया जहाँ छथाह गहराई के तमीप सभाभव॒त में तालध्वनि रहित गान होता है. में इसे नित्यता के रागों में मिलाऊँगा और जब अन्तिम स्वर निकलने के पश्चात मेरी वीणा शान्त्र हो चुकेगी तब में उसे शान्तिमत के चरणकमलों में समर्पण कर देगा, हिन्दी-गीताअलि ११४ कविता का प्रसाद १०१ सें जीवन मर अपने गीतों के द्वारा तुके सदा दूँढवा रहा हूँ. ये गीत ही मुझे द्वार द्वार फियते रहे और मैंने अपने तथा जगत के विपय में जो कुछ अनुभव एवं अन्वेपण किया, वह सब उन्हीं की सहायता का फल हे में ने जो कुछ सीखा है वह सब इन्हीं गीतों ने मुझे सिखाया हैं. इन्हों ने मुझे गुप्त पथ दिखाये और मेरे हृदय रूपी ज्षितिज पर मुझे बहुत से तारों का दर्शव कराया चर छठ, वे सदा मेरे सुख दुख रूपी देश के रहस्यों के पथ- अपदर्शक बने और मेरी यात्रा के भ्रन्त में सन्‍्ध्या समय न जाने क्रिस राजमवन के द्वार पर मुझे लाकर खड़ा कर दिया, दि हिन्दी-गीताअलि अर्थ रहस्य १०२ 5२५ हल ए 0, में लोगों के सम्मुख गत करता था कि मैंने हुकको जान लिया है. वे मेरे पत्र कार्यो में तेरे चित्र देखते हैँ और मेरे पाप्त आकर मुझ से पूछते हैं," वह कोन है ? से नहीं जानता कि उन्हें केसे उत्तर दूँ मेरा कहना है कि वास्तव में में कुछ नहीं कह सकता. वे मुक पर दोप लगाते हैं और मेरा तिरस्कार करते हुए चल देते हैं थ्रौर तू वहाँ मुत्तकराता हुआ बैठा है. मैं तेरी कथात्रों की अमर गीतों में प्रकट करता हूँ आर बरा शल्य गे हदेगे से ।गहल 476 ४ लोग मेरे पास ग्राते है और (वति हैं,-ठुम हमें अपने गीतों के अर्थ : मैं नहीं जावता कि उन्हें क्या उत्तर दूँ. में ब्यरे ऐपा कौन है जो उनके श्रम्िग्राय को वे हँसते हैं भौर नितान्त तिरस्कार करते र तू पहों मृत्तकराता हुआ बेठा हैं बताओ, कहता हूँ: सममता हीं** हुए चल देते हैं श्र हिन्दी-गीताअलि ११६ 6 इण घपणाम १०३ ऐ मेरे ईश्वर, मेरी सारी इन्द्रियाँ एक ही. प्रणाम में तेरी भ्रोर लग जायें झोर इस संसार को तेरे चरणों पर ण्डा जान कर उत्त से संत्तर्ण करें. जैसे सावन का मेघ बिना वरसे हुए पानी के भार से नीचे भुक जाता है बेसे ही मेरा सारा मन एक ही प्रणाम के करने में तेरे द्वार पर शअ्रति नम्र हो जाय. मेरे सब गीतों के विविध रायों को एक घारा में एकत्र होने दे श्रौर एक ही प्रणाम में शान्तिसागर की श्रोर प्रवाहित होने दे. जेसे घर के वियोग से व्याकुल हमों का समूह रात दिन श्रपने पहाडी घोस्तलों की भोर उड़ता हुआ लौटता है वेसे ही मेरी आत्मा को एक ही प्रणाम में अपने सनातन वातस्थान की यात्रा करने दे. समाप्त